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________________ १६० जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन तो समस्या का निदान बाहर नही ढूढना पडेगा। जैनेन्द्र के अनुसार 'सस्कृति स्वीकार पूर्वक ही प्रकृति को सस्कार दे सकती है, उसका इकार नही कर सकती । कामाकर्षण सर्वत्र व्याप्त है। नर-नारी योग पर सृष्टि टिकी है। क्यो न कहा जाय कि ब्रह्माण्ड टिका हे, कारण, वह आकर्षण चर मे ही नही, अचर मे भी व्याप्त है।' ___ जैनेन्द्र के अनुसार सम्बन्ध के विस्तार मे पत्नी का सतीत्व भग नही होता वरन् और भी पुष्ट होता है। यही कारण है कि वे सती को पत्नी से अधिक महानता प्रदान करते है। उनकी दृष्टि मे सती विसर्जिता है और पत्नी केवल विवाहिता । अगर विवाहित होकर पत्नी विसर्जिता न हो जो कि सम्भाव्य ही नही, बल्कि अह है, तो सतीत्व से वह पत्नीत्व उल्टा पडता है । जब कि जैनेन्द्र के अनुसार बिना विवाह के एक कुमारी भी प्रेम मे किसी के प्रति विसजिता होकर आदर्श सती हो जाती है। जिन सतियो का पुराणो मे माहात्म्य है वे पत्नी की परिभाषा पर खरी उतरने वाली है । राधा सतीशिरोमणि समझी जाती है, पर कृष्ण के कारण, जो उनके विवाहित पति नही थे । वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि मे पत्नी सामाजिक होती है और सती आध्यात्मिक । प्रेम-विवाह जैनेन्द्र प्रेम और विवाह को समानान्तर रूप से स्वीकार करते हुए भी प्रेम-विवाह के पक्ष मे नही है । उन्होने अपने कथा-साहित्य मे प्रेम-विवाह को किसी भी स्थिति मे स्वीकार नही किया है । यद्यपि प्रेममूलक स्वतन्त्रता को देखते हुए उनका यह दृष्टिकोण असगत-सा प्रतीत होता है । जैनेन्द्र के अनुसार विवाह सामाजिक सस्कार है, अत उसमे समझौते के हेतु अवकाश रहता है। प्रेम विवाह व्यक्ति और समाज दोनो दृष्टियो से हानिप्रद है । उनके विचार मे विवाह जैसा पवित्र सस्कार माता-पिता के आदेशानुसार ही सम्पन्न होना चाहिए।' प्रेम-विवाह आवेग और भावावेष की स्थिति मे ही होता है । उस समय विवेक बुद्धि कार्य नही करती । प्रेम मुक्त होता है । वह दायित्व नही ग्रहण करता किन्तु १ जैनेन्द्र कुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त' (अप्रकाशित)। २ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार । ३ 'विवाह मे प्रेम का आग्रह इतना अनिवार्य नही, जितना माता-पिता, गुरुजन, बन्धु-बाधव का सयोग और आशीर्वाद।। ---जनेन्द्र कुमार : 'काम, प्रेम और परिवार' पृ० स० ४० ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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