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________________ ( २५. ) ने चिमटा उठाया, "जाते हो, या मैं तुमको बुरा भला कहूँ ।' यह बोले -"अग्नि से धुवॉ फूटने लगा । जहाँ धुवाँ होता है वहाँ श्राम अवश्य होती है ।" साधु चिमटा लेकर इनके पीछे पड़ा । यह भाग निकले । श्रागे २ यह और पीछे २ साधु, और यह कहते गये - " श्रव तो अनि घोर प्रचण्ड होगई । उस में से ज्वाला फूट निकली । उस के कोप से ईश्वर बचाय ।" और छपनी राह ली । थोडी दूर पर किसी और साधु का भौंपडा था । उन्होंने उसके सन्निकट जाकर वही प्रश्न किया । साधु ने नम्रभाव से उत्तर दिया कि "यहाँ अग्नि नहीं है ।" यह कहने लगे, "आप के पास अग्नि अवश्य है ।" वह समझ गया, इनका क्या तात्पर्य है -- कहा " श्राश्रो, बैंटो ! मैं अग्नि का प्रबन्ध कर दूंगा ।" वह उसके पास जाकर बैठे । साधु ने कहा- पुत्रों ! श्रग्नि ढो प्रकार की होती है। एक सामान्य, दूसरी विशेष । सामान्य श्रम से किसी की हानि नहीं होती । वह किसी का शत्रु नहीं है और न कुछ भस्म कर सकती है। विशेष अग्नि से यह काम हो सकता है, यह सारा जगत् अग्निमय है । श्रनि अपने मण्डल में सर्व व्यापक तत्वभूत है । मुझ में, तुम में और सारे संसार में श्रग्नि है। यदि तुम्हें सर्दी से दुःख हो तो अपने मन में केवल विचार से श्रग्नि को प्रज्वलित कर लो और तुम्हारा शरीर गरम हो जायगा । यह शक्ति मनुष्य के ख्याल में है । अगर वह सर्दी का सल्प उठाना रहेगा तो ठण्डा होता चला
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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