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________________ ( २४ ) से गुजर रहा है। श्रार उस बालक नोकर से वह क्रोध से बुरा भला कहता चला जा रहा है । लड़का चुपचाप सुनता जाता था-इसकी किसी बात का उत्तर नहीं देता था । इसे ओर क्रोध आगया । मुँह पर ज़ोर से एक तमाचा मारा, पचासो तवे पृथ्वी पर आ रहे । लड़कान संभाल सका । यदि एक एक बात तीन २ रुपये का था, तो देखो इस क्रोधी मूर्ख ने किस तरह क्रोध द्वारा अपनी पचास रुपये की हानि एक क्षण में करली । लड़को ता यह दशा देख कर मुस्कराया और माग गया । बाबू की कुछ न पूछिये-उसकी जो दशा हुई होगी वहे श्राप ही समझ सका है । (२) बरेली में मेरे दो आर्यसमाजी मित्र रहते थे। एक कहता था "संसार से साधुओं का लोप हो गया।" दूसरा कहता था; "नहीं, संसार में साधु हैं ।" इस पर उनमें वाद विवाद होने लगा । अन्त में यह सम्मति हुई कि चल कर इसकी परीक्षा करनी चाहिए। प्रातःकाल का समय था। दोनों उठे-समीपं ही में कोई नाम का साधु झोपड़ी में रहता था। दोनों मित्र उसके समीप जाकर कहने लगे-"वाबा जी! तुम्हारे घर में आग है, दे दो-सरदी लग रही है। हम सेक कर उससे मुक्ति पा जायं । साधु ने उत्तर दिया, “यहाँ अग्नि नहीं है।" वह बोले; "अग्नि ओप के यहाँ अवश्य है।" साधु क्रोधातुर हो गया, 'क्या मैं झूठ कह रहा हूँ?" उन्हो ने कहा 'अभि तो आप के पास है। हमें उसकी वू आरही है साधु।'
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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