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________________ ' ' अध्याय पहला। . [२५ am . . . . . . . . . -..-...71 -•m पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइसंबंधो। कणयोचलं मलं वा ताणत्थितं संयं सिद्धं ॥२॥ भावार्थ-जीवका और कर्म प्रकृतिरूप कार्मण गरीरका या देवका दोनोंका प्रवाहरूपसे अनादिसे संबंध है। जैसे खानसे निकले हुए कनक पापाणम सुवर्ण और मलका संबंध है। यह बात स्वयं मिद्ध है कि जीव भी है और दैव भी है। इस तरह इस अध्याय्मं यह बात संक्षेपमें बताई गई है कि जीवका अपना ज्ञान व वीर्यका जो कुछ प्रयत्न है वह पुरुषार्थ है। और जो पाप तथा पुण्यकर्म है वह देव है । दैवको जीव बताया है, जीव ही उसका फल भोगता है । जीव ही उसमें तबदीली कर सक्ता है व जीव ही अपने यथार्थ धर्मपुल्पार्थसे दैवका क्ष्य करके सिद्ध व शुद्ध व मुक्त हो सक्ता है, दैवको जीत सक्ता है। पुरुषार्थका ही महानपना है। आगेके अध्यायोंमे इमी अध्यायके कथनका विस्तार किया जायगा।
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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