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________________ जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ । གཡག、 कारण पडता है। ज्ञान और वीर्यके वलसे यह भावों को ठीक कर मक्ता २४ ] 1 है । तौ भी जितने अंग भावमं अशुद्धता गगद्वेष मोहकी होती है उतने अंग नया कर्मबन्ध हो जाता है, इसतरह इस आत्माके अशुद्ध पुरुषार्थसे दैव बनता है। दैवके फल से अशुद्ध भाव होते है । यह काम अनादि से होता चला आ रहा है। जन कभी यह आत्मा ज्ञानी होकर मिथ्या श्रद्धानको दूर करके यह जान जाता है कि मंग स्वभाव परम शुद्ध है, रागद्वेष मोह रहित ज्ञानानन्दमय है, रागद्वेष मोहका झल्काव मोहकर्म के उदयसे होता है व इस ज्ञानका विश्वास कर लेता है. तब आत्माके वीतराग भावमे जमनेका अभ्यास करता है, तब नए दैवका संचय रोक देता है व पुराने दैवको जला करके शुद्ध या मुक्त हो जाता है, मोक्ष पुरुषार्थ सिद्ध हो जाता है । ज्ञानी जीव दैवपर विजय पा लेता है । इस कारण पुरुषार्थ ही दैवसे बड़ा है । संसार में अपनी आसक्तिरूपी भृलसे ढैव बनता है तब संसारकी आसक्ति छोड देनेसे दैवका चनना बन्द हो जाता है। ज्ञान व वैराम्यके ध्यानसे पिछला दैव जल जाता है। ज्ञान और वीर्यरूपी पुरुषार्थके द्वारा सावधान रहनेसे ही दैवपर विजय मिलती जाती है । जैसे बीजको एक टफे 'पका लेनेपर या जला देनेपर फिर वह बीज नहीं उगता है, वैसे ही यह आत्मा नत्र कर्मोंके बीजको जलाकर मुक्त या शुद्ध होजाता है. तब फिर नए कर्मोंका बंध न होनेपर संसार दशा में नहीं आता है । - दशवीं शताब्दीके, श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती गोम्मटसार कर्मकांडमें लिखते हैं-.
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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