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________________ - अध्याय पहला ।' . [२१ मानी जावे तो पुण्यरूपी देवके निमित्तसे पुरुषार्थ सफल हुआ या फपके फलसे असफल हुआ, यह बात नहीं कही जासक्ती । क्योंकि एकसा काम करनेवाले कोई सफल होते है, कोई सफल नहीं होते हैं। यदि सर्वथा पुरुषार्थसे ही कार्यसिद्धि होजाया करे तो सर्व प्राणियोंके मीता पुरुषार्थ बिना चूक सफल होजाया करे। पापी जीव भी सुखी ही रहे, कभी कोई विन बाधाएं ही नहीं आवं, सबका मनोरथ सिद्ध हो। अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्ट स्वदेवतः । • बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्त्रपौवात् ॥९१ ॥ भावार्थ-स्वामी दोनोंकी जरूरत बताकर यह कहते हैं कि जिस बातका बुद्धिपूर्वक विचार नहीं किया गया हो किंतु सुख दुख विघ्न आदि होजावें उममें मुख्यता देवकी या पूर्वमे वाधे हुए अपने ही पुण्य पापकर्मके फरकी लेनी चाहिये । जो काम बुद्धिसे विचारपूर्वक किया जाना है उसमे दृष्ट व अनिष्टका होना अपने ही पुरुषार्थकी मुल्यनासे है। यद्यपि गौणतासे इष्टके लाभमें पुण्यकर्मकी व अनिष्टके होनमें पापकर्मकी भी आवश्यक्ता है। दोनोंको परस्पर अपेक्षास लेना चाहिये। क्योंकि कर्मका भावी उदय क्या होगा यह हमको विदित नहीं है इमलिये हमें तो हरएक कामको विचारपूर्वक करना चाहिये। ___ दशवीं शतालीके प्रसिद्ध आचार्य श्री अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथमें कहते है, अस्ति पुरुपश्चिदात्मा विवर्जितः स्पर्शगन्धरसवर्णैः । गुणपर्ययसमवेतः समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यैः ॥९॥
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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