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________________ eܙ ܙ ܢ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙܚ ܙ ܝܐܝܠ ܝ ܐܚܙ ܟܚܬ २०] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । 'ही उसको धो भी सक्ते हैं । जैसे हम अपने बाहरी दीखनेवाले स्थूल 'शरीरको भोजन पानी हवा देकर पुष्ट रखते है, रोग होनेपर दवाई • लेकर रोगको दूर करते हैं, हम ही विष खाकर उस स्थूल शरीरसे छूट भी सक्ते है, इसी तरह दैव या पाप पुण्यके वने सूक्ष्म शरीरको हम ही बनाते हैं, हम ही उसे सबल या निर्बल कर सक्त है, हम ही उससे वियोग भी पासक्त है । हमे हरएक कार्यमे पुम्पार्थको मुल्य रखना चाहिये, क्योंकि हमारी बुद्धिगोचर यही रह सत्ता है। दूसरी शताब्दीके प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ आप्तमीमांसामें लिखते है-- दैवादेवार्थसिद्धिश्वेदेवं पोरुपतः कयम् । दैवतश्वेदनिर्मोक्षः पौरुपं लिप्फलं भवेत् ॥ ८८ ।। . भावार्थ-यदि दैवसे या पाप पुण्यकर्म से ही कार्यकी सिद्धि होजाया करे, दुःख सुख होजाया करे, ज्ञानादि होजाया करे, तो दैवके लिये पुरुषार्थकी क्या जरूरत रहे ? मन, वचन, कायकी शुभ या अशुभ क्रियासे पाप या पुण्यकर्म या दैव बनता है, यह वात विलकुल सिद्ध नहीं हो । यदि दैवसे ही वन जाया करे तो देवकी संतान सदा चलनेसे कोई पाप पुण्य कर्मरूपी देवसे छूटकर मुक्त नहीं हो सक्ता है। तब दान, शील, जप, तप, ध्यान आदिका सर्व धर्म-पुरुषार्थ निष्फल होजावे, मिथ्या होजावे ।। पौरुषादेव सिद्धिश्चेत् पौरुपं दैवतः कथम् । पौरुषाचेदमोघं स्यात सर्वप्राणिषु पौरुपम् ।। ८९ ॥ भावार्थ, यदि सर्वथा. पुरुषार्थसे ही हरएक कामकी सिद्धि
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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