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________________ जैनधर्न का प्राण ४६ कालीन ही नही, बल्कि समान या एक ही क्षेत्र मे जीवनयापन करनेवाले रहे । दोनो की प्रवृत्ति का धाम एक प्रदेश ही नही, बल्कि एक ही शहर, एक ही मुहल्ला और एक ही कुटुम्ब भी रहा। दोनो के अनुयायी भी आपस मे मिलते और अपने-अपने पूज्य पुरुष के उपदेशो तथा आचारो पर मित्रभाव से या प्रतिस्पद्धभाव से चर्चा भी करते थे । इतना ही नही, बल्कि अनेक अनुयायी ऐसे भी हुए जो दोनो महापुरुषो को समान भाव से मानते थे । कुछ ऐसे भी अनुयायी थे जो पहले किसी एक के अनुयायी रहे पर बाद में दूसरे के अनुयायी हुए, मानो महावीर और बुद्ध के अनुयायी ऐसे पडौसी या ऐसे कुटुम्बी थे जिनका सामाजिक सबंध बहुत निकट का था । कहना तो ऐसा चाहिए कि मानो एक ही कुटुम्ब के अनेक सदस्य भिन्न-भिन्न मान्यताएँ रखते थे जैसे आज भी देखे जाते है । " तीसरा -- निर्ग्रन्थ सप्रदाय की अनेक बातो का बुद्ध ने तथा उनके समकालीन शिप्यो ने आँखो देखा-सा वर्णन किया है, भले ही वह खण्डनदृष्टि से किया हो या प्रासंगिक रूप से । ' इसलिए बौद्धपिटकों में पाया जानेवाला निर्ग्रन्थ सप्रदाय के आचारविचार का निर्देश ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत मूल्यवान् है । फिर हम जब बौद्ध फिरकागत निर्ग्रन्थ सप्रदाय के निर्देशों को खुद निर्ग्रन्थ प्रवचन रूप से उपलब्ध आगमिक साहित्य के निर्देशों के साथ शब्द और भाव की दृष्टि से मिलाते है तो इसमे सदेह नही रह जाता कि दोनो निर्देश प्रमाणभूत है; भले ही दोनो बाजुओ मे वादि-प्रतिवादिभाव रहा हो । जैसी बौद्ध पिटकों की रचना और सकलना की स्थिति है करीब-करीब वैसी ही स्थिति प्राचीन निर्ग्रन्थ आगमो की है । बुद्ध और महावीर बुद्ध और महावीर समकालीन थे । दोनों श्रमण सप्रदाय के समर्थक थे, फिर भी दोनो का अंतर बिना जाने हम किसी नतीजे पर पहुँच नही सकते । पहला अतर तो यह है कि बुद्ध ने महाभिनिष्क्रमण से लेकर अपना १. उपासकदशाग अ० ८ इत्यादि । २. मज्झिमनिकाय, सुत्त १४, ५६; दीघनिकाय, सुत्त २९, ३३ ।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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