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________________ जैनधर्म का प्राण है, जैसाकि वैदिक-सप्रदाय वेदो और ब्राह्मण पुरोहितो के बारे मे मानता व स्वीकार करता है। सभी श्रमण-सप्रदाय अपने-अपने सम्प्रदाय के पुरस्कर्तारूप से किसी-न-किसी योग्यतम पुरुष को मानकर उसके वचनों को ही अन्तिम प्रमाण मानते है और जाति की अपेक्षा गुण की प्रतिष्ठा करते हुए सन्यासी या गृहत्यागीवर्ग का ही गुरुपद स्वीकार करते है। _ निर्ग्रन्थ संप्रदाय ही जैन संप्रदाय : कुछ प्रमाण प्राचीनकाल से श्रमण-सम्प्रदाय की सभी शाखा-प्रतिशाखाओं मे गुरु या त्यागीवर्ग के लिए निम्नलिखित शब्द साधारण रूप से प्रयुक्त होते थे : श्रमण, भिक्षु, अनगार, यति, साधु, तपस्वी, परिव्राजक, अर्हत्, जिन. तीर्थकर आदि । बौद्ध और आजीवक आदि सप्रदायो की तरह जैन-संप्रदाय भी अपने गुरुवर्ग के लिए उपर्युक्त शब्दो का प्रयोग पहले से ही करता आया है, तथापि एक शब्द ऐसा है कि जिसका प्रयोग जैन-सप्रदाय ही अपने सारे इतिहास मे पहले से आजतक अपने गुरुवर्ग के लिए करता आया है। यह शब्द है “निर्ग्रन्थ" (निग्गन्थ)-जैन आगमो के अनुसार निग्गन्थ और बौद्ध पिटको के अनुसार निग्गठ । जहॉतक हम जानते है, ऐतिहासिक साधनों के आधार पर कह सकते है कि जैन-परपरा को छोडकर और किसी परपरा मे गुरुवर्ग के लिए निर्ग्रन्थ शब्द सुप्रचलित और रूढ़ हुआ नही मिलता। इसी कारण से जैन शास्त्र “निग्गथ पावयण" अर्थात् 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' कहा गया है। किसी अन्य-सप्रदाय का शास्त्र निर्ग्रन्थ प्रवचन नही कहा जाता। आगमकथित निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के साथ जितना और जैसा सीधा संबध बौद्ध पिटकों का है उतना और वैसा संबध वैदिक या पौराणिक साहित्य का नही है । इसके निम्नलिखित कारण है एक तो-जैन सप्रदाय और बौद्ध-सम्प्रदाय दोनो ही श्रमण संप्रदाय है। अतएव इनका सबध भ्रातृभाव जैसा है। दूसरा-बौद्ध सप्रदाय के स्थापक गौतम बुद्ध तथा निर्ग्रन्थ सप्रदाय के अन्तिम पुरस्कर्ता ज्ञातपुत्र महावीर दोनों समकालीन थे। वे केवल सम १. आचाराग १. ३. १. १०८ । २. भगवती ९. ६. ३८३
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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