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________________ जैनधर्म का प्राण ४७ नया मार्ग-धर्मचक्रप्रवर्तन किया, तबतक के छ वर्षों में उस समय प्रचलित भिन्न-भिन्न तपस्वी और योगी सप्रदायो का एक-एक करके स्वीकार परित्याग किया और अन्त मे अपने अनुभव के बल पर नया ही माग प्रस्थापित किया, जबकि महावीर को कुलपरपरा से जो धर्ममार्ग प्राप्त था उसको स्वीकार करके वे आगे बढे और उस कुलधर्म मे अपनी सूझ और शक्ति के अनुसार सुधार या शुद्धि की । एक का मार्ग पुराने पथो के त्याग के बाद नया धर्म-स्थापन था तो दूसरे का मार्ग कुलधर्म का सशोधन मात्र था। इसीलिए हम देखते है कि बुद्ध जगह-जगह पूर्व स्वीकृत और अस्वीकृत अनेक पथो की समालोचना करते है और कहते है कि अमुक पथ का अमुक नायक अमुक मानता है, दूसरा अमुक मानता है, पर मै इसमे सम्मत नहीं; मै तो ऐसा मानता हूँ इत्यादि । बुद्ध ने पिटक-भर मे ऐसा कही नही कहा कि मैं जो कहता हूँ वह मात्र पुराना है, मै तो उसका प्रचारक मात्र हूँ। बुद्ध के सारे कथन के पीछे एक ही भाव है और वह यह है कि मरा मार्ग खुद अपनी खोज का फल है। जब कि महावीर ऐसा नही कहते, क्योकि एक बार पाश्र्वापत्यिको ने महावीर से कुछ प्रश्न किए तो उन्होने पार्वापत्यिकों को पार्श्वनाथ के ही वचन की साक्षी देकर अपने पक्ष मे किया है।' यही कारण है कि बुद्ध ने अपने मत के साथ दूसरे किसी समकालीन या पूर्वकालीन मत का समन्वय नही किया है, उन्होने केवल अपने मत की विशेषताओ को दिखाया है ; जवकि महावीर ने ऐसा नहीं किया। उन्होने पार्श्वनाथ के तत्कालीन सप्रदाय के अनुयायियो के साथ अपने सुधार का या परिवर्तनों का समन्वय किया है। इसलिए महावीर का मार्ग पार्श्वनाथ के सप्रदाय के साथ उनकी समन्वयवृत्ति का सूचक है। बुद्ध और महावीर के बीच लक्ष्य देने योग्य दूसरा अतर जीवनकाल का है। बुद्ध ८० वर्ष के होकर निर्वाण को प्राप्त हुए, जबकि महावीर ७२ वर्ष के होकर। अब तो यह साबित-सा हो गया है कि बुद्ध का निर्वाण पहले और १. मज्झिम० ५६ । अगुत्तर Vol. I, p. 206, Vol. III, p. 383. २. भगवती ५. ९. २२५ । ३. उत्तराध्ययन अ० २३ ।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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