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________________ २०४ जैनधर्म का प्राण वृद्धि या कमी हुई इसका कोई निश्चित विवरण हमारे पास नहीं है, फिर भी ऐसा मालूम होता है कि भगवान् के बाद अमुक शताब्दियो तक तो इस सस्था मे कमी नही हुई थी, सम्भवत अभिवृद्धि ही हुई होगी। साधुसस्था मे स्त्रियो को स्थान भगवान महावीर ने ही सर्वप्रथम नही दिया था, उनके पहले भी भिक्षुणियाँ जैन साधुसघ मे थी और दूसरे परिव्राजक पथो मे भी थी, फिर भी इतना तो सच है कि भगवान महावीर ने अपने साधुसघ मे स्त्रियो को खूब अवकाश दिया और उसकी व्यवस्था अधिक मजबूत की। इसका प्रभाव बौद्ध साधुसघ पर भी पडा । बुद्ध भगवान साधुसघ मे स्त्रियों को स्थान नहीं देना चाहते थे, परन्तु उनको साधुसस्था मे स्त्रियो को स्थान अन्त मे देना पड़ा। उनके इस परिवर्तन मे जैन साधुसघ का कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य है ऐसा विचार करने पर लगता है। ___ साधु का ध्येय : जीवनशुद्धि साधु यानी साधक । साधक का अर्थ है : अमुक ध्येय की सिद्धि के लिए साधना करनेवाला, उस ध्येय को पाने की इच्छावाला। जैन साधुओ का ध्येय मुख्य रूप से तो जीवनशुद्धि ही निश्चित किया गया है। जीवन को शुद्ध करने का मतलब है उसके बन्धन, उसके मल, उसके विक्षेप एव उसकी संकुचितताओ को दूर करना । भगवान ने अपने जीवन द्वारा समझदार को ऐसा पदार्थपाठ सिखाया है कि जब तक वह स्वय अपना जीवन अन्तर्मुख होकर नही जॉचता, उसका शोधन नहीं करता, स्वय विचार एव व्यवहार मे स्थिर नहीं होता और अपने ध्येय के विषय मे उसे स्पष्ट प्रतीति नही होती, तब तक वह कैसे दूसरे को उस ओर ले जा सकता है ? खास करके आध्यात्मिक जीवन जैसे महत्त्व के विषय मे यदि किसी का नेतृत्व करना हो तो पहले–अर्थात् दूसरे के उपदेशक अथवा गुरु वनने से पहलेअपने-आपको उस विषय मे बराबर तैयार करना चाहिए। इस तैयारी का समय ही साधना का समय है। ऐसी साधना के लिए एकान्त स्थान, स्नेही तथा अन्य लोगो से अलगाव, किसी भी सामाजिक अथवा अन्य प्रपचो मे सिरपच्ची न करना, अमुक प्रकार के खाने-पीने के तथा रहन-सहन के नियम--इन सबकी आयोजना की गई है।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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