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________________ जैनधर्म का प्राण २०५ स्थानान्तर और लोकोपकार इस सस्था मे ऐसे असाधारण पुरुष पैदा हुए है, जिनमे अन्तर्दृष्टि और सूक्ष्म विचारणा सदा-सर्वदा विद्यमान रही थी। कई ऐसे भी हुए है, जिनमे बहिर्द प्टि तो थी ही, और अन्तर्दष्टि से भी रहित नही थे। कुछ ऐसे भी हुए है, जिनमे अन्तर्दृष्टि तो नगण्य अथवा सर्वथा गौण थी और बहिर्दू प्टि ही मुख्य हो गई थी। चाहे जो हो, परन्तु एक ओर समाज और कुलधर्म के रूप मे जैनत्व का विस्तार होता गया और उस समाज मे से ही साधु बनकर इस सस्था मे दाखिल होते गये और दूसरी ओर साधुओ का वसतिस्थान भी धीरे-धीरे बदलता गया। जगलो, पहाडो और नगर के बाहरी भागो मे से साधुगण लोकबस्ती मे आने लगे । साधुसस्था ने जनसमुदाय मे स्थान लेकर अनिच्छा से भी लोकससर्गजनित कुछ दोष अपना लिए हो, तो उसके साथ ही उस सस्था ने लोगो को अपने कुछ खास गुण भी दिये है, अथवा वैसा करने का भगीरथ प्रयत्न किया है। जो त्यागी अन्तर्दृष्टिवाले थे और जिन्होने जीवन मे आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त की थी उनके शुभ और शुद्ध कृत्य का लेखा तो उनके साथ ही गया, क्योकि उनको अपने जीवन की सस्मृति दूसरो को देने की तनिक भी परवाह नही थी, परन्तु जिन्होने, अन्तर्दृष्टि होने, न होने अथवा कमोबेश होने पर भी लोककार्य मे अपने प्रयत्न द्वारा कुछ अर्पण किया था उनकी स्मृति हमारे समक्ष वज्रलिपि मे है-एक समय के मासभोजी और मद्यपायी जनसमाज में मास और मद्य की ओर जो अरुचि अथवा उसके सेवन में अधर्मबुद्धि उत्पन्न हुई है उसका श्रेय साधुसस्था को कुछ कम नही है। साधुसंस्था का रात-दिन एक काम तो चलता ही रहता कि वे जहाँ कही जाते वहाँ सात व्यसन के त्याग का शब्द से और जीवन से पदार्थपाठ सिखाते । मास के प्रति तिरस्कार, शराब के प्रति घृणा और व्यभिचार की अप्रतिष्ठा तथा ब्रह्मचर्य का बहुमान-इतना वातावरण लोकमानस में तैयार करने मे साधुसस्था का असाधारण प्रदान है इसका कोई इन्कार नहीं कर सकता। (द० औ० चि० भा० १, प० ४१२-४१६)
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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