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________________ जैनधर्म का प्राण २०३ ग्रन्थो मे पावापत्य अर्थात् पार्श्वनाथ के शिष्यो की बात आती है। उनमें से कई भगवान के पास जाने मे सकोच अनुभव करते है, कई उन्हे धर्मविरोधी समझकर हैरान करते है, कई भगवान को हराने के लिए अथवा उनकी परीक्षा करने की दृष्टि से अनेक प्रकार के प्रश्न पूछते है; परन्तु अन्त मे पापित्य की वह परम्परा भगवान महावीर की शिष्यपरम्परामे या तो समा जाती है या फिर उसका कुछ सड़ा हुआ भाग अपने आप झड जाता है । इस प्रकार भगवान का साधुसघ पुन नये रूप मे ही उदित होता है, वह एक सस्था के रूप मे नवनिर्माण पाता है। बुद्धिमत्तापूर्ण संविधान उसकी रहन-सहन के, पारस्परिक व्यवहार के तथा कर्तव्यो के नियम बनते है । इन नियमो के पालन के लिए और यदि कोई इनका भग करे तो उसे योग्य दण्ड देने के लिए, सुव्यवस्थित राज्यतत्र की भॉति, इस साधुसस्था के तत्र मे भी नियम बनाये जाते है, छोटे-बड़े अधिकारी नियुक्त किये जाते है और इन सबके कार्यों की मर्यादा ऑकी जाती है । संघस्थविर, गच्छस्थविर, आचार्य, उपाचार्य, प्रवर्तक, गणी आदि की मर्यादाएँ, आपसी व्यवहार, कार्य के विभाग, एक-दूसरे के झगडो का निर्णय, एकदूसरे के गच्छ मे अथवा एक-दूसरे के गुरु के पास जाने-आने के, सीखने के, आहार इत्यादि के नियमो का जो वर्णन छेदसूत्रो मे मिलता है उसे देखने से साधुसस्था की सघटना के बारे मे आचार्यों की दीर्घदर्शिता के प्रति मान उत्पन्न हुए बिना नही रहता । इतना ही नही, आज भी किसी बड़ी सस्था को अपनी नियमावली तैयार करनी हो अथवा उसे विशाल बनाना हो तो उसे साधुसस्था की इस नियमावली का अभ्यास अत्यन्त सहायक होगा, ऐसा मुझे स्पष्ट प्रतीत होता है। भिक्षुणीसंघ और उसका बौद्ध संघ पर प्रभाव इस देश के चारो कोनो मे साधुसस्था फैल चुकी थी। भगवान के अस्तित्व काल मे चौदह हजार भिक्षु और छत्तीस हजार भिक्षुणियो के होने का उल्लेख आता है। उनके निर्वाण के पश्चात् इस साधुसस्था में कितनी
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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