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________________ : १७ : चार संस्थाएँ (१) संघ संस्था चतुविध संघ भगवान महावीर ने जब वर्णबन्धन को तोड डाला तब त्याग के दृष्टिबिन्दु पर अपनी सस्था के विभाग किये । उसमे मुख्य दो विभाग थे एक घर-बार और कुटुम्ब - कबीले का त्याग करके विहरण करनेवाला अनगार वर्ग, और दूसरा कुटुम्ब-कबीले मे आसक्त स्थानबद्ध अगारी वर्ग । पहला वर्ग पूर्ण त्यागी था । उसमे स्त्री-पुरुष दोनो आते थे और वे साधु-साध् कहलाते थे । दूसरा वर्ग पूर्ण त्याग का अभिलाषी था । इस प्रकार चतुर्विव सघव्यवस्था अथवा ब्राह्मण - पन्थ के प्राचीन शब्द का नये रूप में उपयोग करे तो चतुर्विध वर्णव्यवस्था — शुरू हुई । साघुसघ की व्यवस्था साधु करते। उसके नियम इस सघ मे अब भी है और शास्त्र मे भी बहुत सुन्दर और व्यवस्थित रूप से दिये गये है । साधुसंघ के ऊपर श्रावक संघ का अकुश नही है ऐसा कोई न समझे । प्रत्येक निर्विवाद रूप से अच्छा कार्य करने के लिए साधुसंघ स्वतन्त्र है, परन्तु कही भूल मालूम हो अथवा तो मतभेद हो अथवा तो अच्छे काम में भी मदद की अपेक्षा हो वहाँ साघुमघ ने स्वय ही श्रावकसघ का अकुरा अपनी इच्छा से स्वीकार किया है। इसी प्रकार श्रावक संघ का संविधान अनेक प्रकार से भिन्न होने पर भी साघुसघ का अकुश वह मानता ही आया है । इस प्रकार पारस्परिक सहयोग से ये दोनो सघ सामान्यतः हितकार्य ही करते आये है । (द० औ० चि० भा० १, पृ० ३७७ - ३७८ ) • (२) साधु संस्था आज की साधुसंस्था भगवान महावीर की तो देन ही है, परन्तु यह संस्था उससे भी प्राचीन है । भगवती जैसे आगमो मे तथा दूसरे प्राचीन
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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