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________________ ११३ जैनधर्म का प्राण बचाने का लक्ष्य है। जब बापूजी आदि प्राणान्त अनशन की बात करते हैं और मशरूवाला आदि समर्थन करते है, तब उसके पीछे यही दृष्टिबिन्दु मुख्य है। हिसा नहीं, अपितु आध्यात्मिक वीरता ___ इसमे हिसा की कोई बू तक नही है। यह तो उस व्यक्ति के लिए विधान है, जो एकमात्र आध्यात्मिक जीवन का उम्मेदवार और तदर्थ की हुई सत्प्रतिज्ञाओ के पालन मे रत हो। इस जीवन के अधिकारी भी अनेक प्रकार के होते रहे है। एक तो वह जिसने जिनकल्प स्वीकार किया हो, जो आज विच्छिन्न है। जिनकल्पी अकेला रहता है और किसी तरह किसी की सेवा नहीं लेता। उसके वास्ते अन्तिम जीवन की घडियो मे किसी की सेवा लेने का प्रसग न आवे, इसलिये अनिवार्य होता है कि वह सावध और शक्त अवस्था मे ही ध्यान और तपस्या आदि द्वारा ऐसी तैयारी करे कि न मरण से डरना पड़े और न किसी ही सेवा लेनी पडे । वही सब जवाबदेहियों को अदा करने के बाद बारह वर्ष तक अकेला ध्यान-तप करके अपने जीवन का उत्सर्ग करना है । पर यह कल्प मात्र जिनकल्पी के लिये ही है। बाकी के विधान जुदे-जुदे अधिकारियो के लिए है । उन सबका सार यह है कि यदि की हुई सत्प्रतिज्ञाओ के भङ्ग का अवसर आवे और वह भङ्ग जो सहन कर नही सकता उसके लिए प्रतिज्ञाभंग की अपेक्षा प्रतिज्ञापालनपूर्वक मरण लेना ही श्रेयस्कर है । आप देखेंगे कि इसमें आध्यात्मिक वीरता है। स्थल जीवन के लोभ से, आध्यात्मिक गुणो से च्युत होकर मृत्यु से भागने की कायरता नही है । और न तो स्थूल जीवन की निराशा से ऊबकर मृत्यु के मुख मे पडने की आत्मवध कहलानेवाली बालिशता है। ऐसा व्यक्ति मृत्यु से जितना ही निर्भय, उतना ही उसके लिए तैयार भी रहता है । वह जीवनप्रिय होता है, जीवन-मोही नहीं। सलेखना मरण को आमत्रित करने की विधि नहीं है, पर अपने-आप आनेवाली मृत्यु के लिए निर्भय तैयारी मात्र है। उसी के बाद सथारे का भी अवसर आ सकता है । इस तरह यह सारा विचार अहिंसा और तन्मूलक सद्गुणो की तन्मयता मे से ही आया है, जो आज भी अनेक रूप से शिष्टसमत है।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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