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________________ ११२ जैनधर्म का प्राण अधिकारी होता है, वह कसौटी के समय पर उसी को पसद करता है । और ऐसे ही आध्यात्मिक जीवनवाले व्यक्ति के लिए प्राणान्त अनशन की इजाजत है; पामरो, भयभीतो या लालचियो के लिए नही। अब आप देखेंगे कि प्राणान्त अनशन देहरूप घर का नाश करके भी दिव्य जीवनरूप अपनी आत्मा को गिरने से बचा लेता है। इसलिए वह खरे अर्थ मे तात्त्विक दृष्टि से अहिसक ही है। देह का नाश आत्महत्या कब? टीकाकारों को उत्तर जो लेखक आत्मघात रूप मे ऐसे सथारे का वर्णन करते है वे मर्म तक नही सोचते; परन्तु यदि किसी अति उच्च उद्देश्य से किसी पर रागद्वेष बिना किए सपूर्ण मैत्रीभावपूर्वक निर्भय और प्रसन्न हृदय से बापू जैसा प्राणान्त अनशन करें, तो फिर वे ही लेखक उस मरण को सराहेगे, कभी आत्मघात न कहेगे, क्योकि ऐसे व्यक्ति का उद्देश्य और जीवनक्रम उन लेखको की आँखो के सामने है, जबकि जैन परपरा में सथारा करनेवाले चाहे शुभाशयी ही क्यो न हो, पर उनका उद्देश्य और जीवनक्रम इस तरह सुविदित नही । परन्तु शास्त्र का विधान तो उसी दृष्टि में है और उसका अहिसा के साथ पूरा मेल भी है । इस अर्थ मे एक उपमा है। यदि कोई व्यक्ति अपना सारा घर जलता देखकर कोशिश करने पर भी उसे जलने से बचा न सके तो वह क्या करेगा? आखिर में सबको जलता छोडकर अपने को बचा लेगा । यही स्थिति आध्यात्मिक जीवनेच्छु की रहती है। वह खामख्वाह देह का नाश कभी न करेगा। शास्त्र में उसका निषेध है। प्रत्युत देहरक्षा कर्तव्य मानी गई है, पर वह संयम के निमित्त । आखिरी लाचारी मे ही निर्दिष्ट शर्तों के साथ देहनाश समाधिमरण है और अहिसा भी ; अन्यथा बालमरण औं भयकर दुष्काल आदि तगी मे देहरक्षा के निमित्त संयम से पतन होने का अवसर आवे या अनिवार्य रूप से मरण लानेवाली बीमारियों के कारण खुद को और दूसरों को निरर्थक परेशानी होती हो और फिर भी संयम या सद्गुण की रक्षा सम्भव न हो, तब मात्र सयम और समभाव की दृष्टि से संथारे का विधान है, जिसमे एकमात्र. सूक्ष्म आध्यात्मिक जीवन को ही
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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