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________________ जैनधर्म का प्राण धर्म में आत्मवध राधाकृष्णन ने जो लिखा है कि बौद्ध धर्म ' स्युसाइड' को नही मानता, ठीक नही है। खुद बुद्ध के समय भिक्षु छन्न और भिक्षु वल्कली ने ऐसे ही असाध्य रोग के कारण आत्मवध किया था, जिसे तथागत ने मान्य रखा । भिक्षु अप्रमत्त थे । उनके आत्मबध मे फर्क यह है कि वे उपवास आदि के द्वारा धीरे-धीरे मृत्यु की तैयारी नही करते, किन्तु एकबारगी शस्त्रवत्र से स्वनाश करते है, जिसे 'हरीकरी' कहना चाहिए । यद्यपि ऐसे शस्त्रवध की संगति जैन ग्रंथों मे नही है, पर उसके समान दूसरे प्रकार के वधों की संमति है । दोनो परम्पराओ मे मूल भूमिका सम्पूर्ण रूप से एक ही है और वह मात्र समाधिजीवन की रक्षा । 'स्युसाइड' शब्द कुछ निद्य-सा है । शास्त्र का शब्द समाधिकरण और पडितमरण है, जो उपयुक्त है । उक्त छन्न और वल्कली की कथा अनुक्रम से मज्झिमनिकाय और सयुक्तनिकाय मे है । ११४ कतिपय सूक्त नमूने के लिए कुछ प्राकृत पद्य और उनका अनुवाद देता हूंमरणपडियारभूया एसा एवं च ण मरणणिमित्ता । जह गंडच्छेअकिरिया णो आयविराहणारूवा ॥ समाधिमरण की क्रिया मरण के निमित्त नहीं, किन्तु उसके प्रतिकार के लिए है । जैसे फोड़े को नश्तर लगाना आत्मविराधना के लिए नही होता । 'जीवियं नाभिकखेज्जा मरणं नावि पत्थए ।' उसे न तो जीवन की अभिलाषा है और न मरण के लिए वह प्रार्थना ही करता है । 'अप्पा खलु संथारो हवई विसुद्धचरितम्भि ।' चरित्र में स्थित विशुद्ध आत्मा ही संथारा है । (द० औ० चि० खं० २, पृ० ५३३-५३६ )
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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