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________________ (१३) ममम्न स्त्रियों का त्याग करके एक विधवा में काम लालसा को बद्ध करने से भी काम लालसा मर्यादित न मानी जावे, हम नासमझी का कुछ ठिकाना भी है ? 'प्राक्षेपक के कथनानुसार जैसे कन्या 'तुम ही पुरुष' स मैथुन करने की प्रतिमा करनी, उमी नरह पुरुष भी तो "तुमही कन्या" ले मैथुन करने की प्रतिमा करना है। पुरुप ना विधुर हो जाने पर या मपनोक होने पर भी अनेक स्त्रियों क साथ विवाह करता रहे-फिर भी उसको 'नम ही कन्या की प्रनिशा बनी रहे और स्त्री, पति के मर जाने के बाद भी किसी एक पुरुप से विवाह करे ना उनने में ही 'तुम ही पुरुष वाली प्रनिना नष्ट हो जाये ! यादरे 'तुमाही! या 'तुमी ' का 'ही' नी यडा विचित्र है जो एक तरफ नो मैकडॉ बार मारे जाने पर भी बना रहता है और दूसरी नरफ़ज़गमा का लगते हो समाप्त हो जाता है ! क्या श्राक्षे. पक इस यान पर विचार करेगा कि जब उसके शब्दों के अनु मार ही स्त्री और पुरुष दोनों की प्रतिमा यावज्जीव थी तो पुनर्विवाह में स्त्री, प्रनिताच्युत क्यों कही जाती है और पुरुष क्यों नहीं मना जाना ? यहाँ बानेपक को अपने 'यावज्जीव' और 'दी का बिलकुल न्याल ही नहीं रहा। इसीलिये अपनी धुन में मग्न होकर यह कतरफा टिगरी देना हुआ कहता है आक्षेप (0)-जय यायजीव की प्रतिमा कन्या करती है तो फिर पनि फे मरजाने पर वह विधवा हुई तो यदि पुरुपा. न्नर ग्रहण करनी है नो अकालइटेच प्रगीत लक्षण से उसका विवाह नहीं कहा जा सकता। वह व्यभिचार है। मपाधान-ठीक हनी नगर श्राक्षेपक के शन्दानुसार कहा जा सकता है कि जय यावज्जीव की प्रनिशा पुरुष करता है तो फिर पत्नी के मर जान पर वह विधुर हुश्रा । सो यदि
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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