SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २०६ ) नियोग कार्य पूरा हो जाने पर फिर भौजाई या बहू के ममान पवित्र सम्बन्ध रक्खे । नियक्ती ती विधि हित्वा वर्तयातां तु कामतः । तावुमी पतिती म्यातां स्नुपागगरुतल्पगी ।।६-६३॥ यदि नियोग के समय शामवासना से वह सम्भोग करे तो उसे मौजाई या भ्रातृवधू के साथ सम्भोग करने का पाप लगता है, वह पनित हो जाता है। पाठक देखें कि यह नियोग कितना कठिन है । साधारण मनुष्य इस विधिका पालन नहीं कर सकते । इसलिये आगे चलकर मनुस्मृति में इस नियोगका निषेध भी किया गया है। वही निषेधपरक श्लोक पंडित लोग उधृत करते हैं और विधिपरक श्लोकों को.साफ छोड जाते है।। हिन्दू शास्त्र न ना नियोग विरोधी है, न विधवाविवाह के । उनमें सिर्फ नियोग का निषेध, कलिकाल के लिये किया है क्योंकि कलियुग में नियोग के योग्य पुरुषों का मिलना दुर्लभ है। यही बान टीकाकारन कही है-"अयं च स्वोक्तनियोग. निषेधः कलिकालविपया" । वृहस्पनि ने तीन श्लोकों में तो और भी अधिक खुलासा कर दिया है । इसलिये हिन्दशास्त्रांस विधवाविवाह का निषेध करना सर्वथा भूल है । आक्षेप (घ) चाणिषयने पुनर्विवाह की प्राधा नहीं दी परन्तु पनि के पास जाने की प्रामा दी है । विदुल लाभे का अर्थ छोड़कर दुसरा पति करने का अर्थ तो इस अन्धेरी दरवार को ही सूझा। समाधान-श्रीलाल जी जान बूझकर बात को छिपाते है अन्यथा "यथादत्तमादाय प्रमुञ्चेयुः" श्रादि वाक्यों से पूर्व विवाह सम्बन्ध के टूट जानेका साफ़ विधान है। खैर, पहिली बात तो यह है कि उन वाक्योंका अनुवाद छपी हुई पुस्तक में
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy