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________________ ( २०० ) कमी उद्धृत न किये जाने । पाठक इनके अर्थ पर विचार करे, पूर्वापर सम्बन्ध देखे और नियोग तथा विधवाविवाह के भेट का समझे। ये श्लोक नियोगप्रकरण के है। नियांग में सन्तानोत्पत्ति के लिये सिर्फ पक बार सभांग करने की आज्ञा है। नियोग के समय दोनों में सम्मांग क्रिया बिलकुल निर्मित होकर करना पहनी है तथा किसी भी तरह की रसिकता से दूर रहना पड़ता है । देविय ज्येष्ठो यवीयसी मार्यों यवीमान्वाग्रजस्त्रियम् । पतितो भवतो गत्या नियुक्तावप्यनापदि ||६-५८॥ अगर विधवा के मन्तान हो (अनापदि-सन्तानाभाव बिना) तो उसका ज्येष्ठ या देवर नियाग करे तो पनि हा जाते हैं। देवराहा सपिंडाहा स्त्रिया सम्पनियुक्तया। प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये ॥४-१६॥ सन्तान के नाश हाजाने पर गुरुजनों को प्राशाम विधिपूर्वक देवर से या और सपिंड से (कुटुम्बी से) इच्छित सतान पैदा करना चाहिये। (श्रावश्यकता हाने पर एक में अधिक सन्तान पैदा की जाती है । हिन्दु पुराणां क अनुमार धृतराष्ट्र पांडु और विदुर नियोगज सन्तान है)। विधनायां नियुक्तम्तु घृतातो घान्यतो निशि। एकमुत्पादयेत्पुत्रं न द्वितीयं कथचन ॥६-६०॥ विधवा में (आवश्यकता होने पर सघत्रामें भी) सतान के लिये नियुक्त पुरुष, सारे शरीर में घी का लेप कर मौन रक्खे और एक ही पुत्र पैदा करे। विधवायां नियोगार्थे निवृत्ते तु यथाविधि । गुरुवश स्नुषावञ्च वर्तयातां परम्परम् ॥ ६-६२॥
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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