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________________ (१४८ ) क्या गजब का अभिप्राय है ! श्राक्षपक के ये शब्द बिलकुल उन्मत्त प्रलाप है -"विवाह साता-वेदनीय श्रोर उपमागान्त. राय के नयोपशम से होता है-चारित्रमाह के उदय से नहीं, इसीलिये उन्होंने चारित्रमोहोदयात् के पहिले सद्वेद्य पद डाल दिया है।" चारित्रमोह के पहिले सद्वेद्य पद डाल दिया, इससे एक के बदले में दो कारण होगये परन्तु चारित्रमोह का निषेध कैसे हो गया और उसका अर्थ उपभोगान्तगय कैस बन गया ? आक्षेप (अ)-विवाह का उपादान कारण चारित्रमोह का उदय नहीं है किन्तु वर वधु है । समाधान हमने वहाँ"चारित्रमोह के उदय से होने वाले रागपरिणाम" कहा है। यह परिणाम ही तो विवाह की पूर्व अवस्था है और पूर्व अवस्था को श्राप स्वयं उपादान कारण मानते हैं। विस्तृत कामवासना का परिचित कामवासना हो जाना ही विवाह है। आपने उपचार से परिणामी (घर कन्या) को उपादान कारण कह दिया है, परन्तु परिणाम के विना परिणामी वर कन्या नहीं हो सकते । बालविवाह में वर कन्या होते ही नहीं, दो बच्चे होते है 1 जब परिणाम नहीं तव परि. णामी कैसे ? यहाँ आक्षेपक अनिग्रह में अप्रतिमा नामक निग्रह कहकर निरनुयोज्यानुयोग नामक निग्रहस्थान में जागिरा है। आक्षेप (2)-जब आप विवाह के लिये नियत विधि मानते हैं तब उसके बिना विवाह कैसा ? नियत विधि शब्दका कुछ ख़याल भी है या नहीं? समाधान-गांधर्वविवाह को श्राप विवाह मानते हो । श्रापकी दृष्टि में भले ही वह अधर्म विवाह हो, परन्तु है तो विवाह ही। इस विवाह में श्राप भी नियत विधि नहीं मानते फिर भी विवाह कहते हैं। दूसरी बात यह है कि किसी नियत
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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