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________________ ( ६६ ) है कि 'विधवा विवाह घोर पाप है, क्योंकि स्त्रियाँ जूठी थाली के समान है। अब वे किसी के काम की नहीं'। दोनों बहनों को यह अपमान चुपचाप महलेना पडता है, जिस में पहिली बहिन तो ब्रह्मचर्य से जीवन बिताती है और दूसरी वैधव्यका ढोंग करती है। उसकी वासनाएँ प्रगट न हो जायें, इसलिये वह विधवा विवाह वालोंको गान्तियों देती है। इसलिये पंडित लोग उसकी बडी प्रशंसा करते है । परन्तु वह बेचारी अपनी वासनाओं को दमन नहीं कर पाती, इसलिये व्यभिचार के मार्ग मैं चली जाती है। फिर गर्भ रह जाता है । श्रव वह सोचती है कि विधवाविवाहवालों को मैंने आज तक गालियाँ दी हैं, इसलिये जब मेरे बच्चा पैदा होगा तो कोई क्या कहेगा ? इस लिये वह गर्भ गिराने की चेष्टा करती है। गिर जाता है तो ठीक, नहीं गिरता है तो वह पैदा होते ही बच्चे को मारडालती है । वह बीच बीच में पुनर्विवाह का विचार करती है, लेकिन परिडतो का यह वक्तव्य याद श्राजाता है कि "विधवाविवाह से तो जिनमार्ग दूषित होता है लेकिन व्यभिचार या भ्रूणहत्या से जिनमार्ग दूषित नहीं होता", इसलिये वह व्यभिचार और भ्रूणहत्या की तरफ झुक जाती है । सुधारक बहिन को तो ऐसा मौका ही नहीं है जिससे उसे अपना दाम्पत्य छिपाना पढ़े और भ्रूणहत्या करना पडे । उसके अगर सन्तान पैदा होगी तो वह हर्ष मनायगी जबकि स्थिनिपालक बहिन हाय २ करेगी और उसकी हत्या करने की तरकीब सोचेगी। इससे पाठक समझ सकते है कि हत्यारा मार्ग कौन है और दया का मार्ग कौन है ? हम यहाँ एक ही बात रखते है कि कोई स्त्री विधवाविवाह और गुप्त व्यभिचार में से किस मार्ग का अवलम्वन करना चाहती है । सुधारक लोग विधवाविवाह की सलाह
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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