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________________ ७२ जैनधर्म इसलिये जिस वस्तुका नाम लिया जाता है, सेवक उसे ही ले आता है। गु० - घटको ही घट क्यों कहते हैं ? वस्त्रको घट क्यों नहीं कहते ? शि० - घटका काम घट ही दे सकता है. वस्त्र न Aw सकता । गु० - घटका काम घट ही क्यों देता है, वस्त्र क्यों नहीं देता ? शि० - यह तो वस्तुका स्वभाव है, इसमें प्रश्नके लिये स्थान नहीं है। गु० - क्या तुम्हारे कहने का यह अभिप्राय है कि जो स्वभाव का है वह वस्त्रका नहीं, और जो वस्त्रका हैं वह घटका नहीं ? शि० - जी हाँ, प्रत्येक वस्तु अपना जुदा स्वभाव रखती है । गु० - अब तुम यह बतलाओ कि क्या हम घटको असत् भी कह सकते हैं ? शि० - हाँ, घटके फूट जानेपर असत् कहते ही हैं । गु० - टूट फूट जानेपर तो प्रत्येक वस्तु असत् कही जाती है । हमारा मतलब हैं कि क्या घटके रहते हुए भी उसे असत् कहा जा सकता है ? शि० - नहीं, सकता है ? कभी नहीं, जो 'है' वह 'नहीं' कैसे हो गु० - किनारे पर आकर फिर बहना चाहते हो । अभी तुम स्वयं स्वीकार कर चुके हों कि प्रत्येक वस्तुका स्वभाव जुदाजुदा होता है और वह स्वभाव उसी वस्तुमें रहता है दूसरी वस्तु नहीं । शि० - हाँ, यह तो मैं अब भी स्वीकार करता हूँ, क्योंकि यदि ऐसा न माना जायेगा तो आग पानी हो जायेगी और पानी आग हो जायेगा। कपड़ा मिट्टी हो जायगा और मिट्टी
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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