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________________ सिद्धान्त ७१ है। न कोई वस्तु केवल सत्स्वरूप ही है और न कोई वस्तु केवल असत्स्यरूप ही है। यदि प्रत्येक वस्तुको केवल सत्स्वरूप ही माना जायेगा तो सव वस्तुओंके सर्वथा मत्म्वरूप होनेसे उन वस्तुओंके बीच में जो अन्दर देखने में आता है, उसका लोप हो जायेगा और उसके लोप हो जानेसे सब वस्तुएँ सब रूप हो जायेगों। उदाहरणके लिये-घट (घड़ा) और पट ( कपड़ा) ये दोनों वस्तु हैं, घट भी वस्तु है और पट भी वस्तु है। किन्तु जब हम किसीसे घट लाने को कहते हैं तो वह घट ही लाना है, पट नहीं लाता। और जब पट लानेको कहते हैं तो वह पट ही लाता है, घट नहीं लाना । इमसे प्रमाणित है कि घट-घट ही है पट नहीं है, और पट पट ही है, घट नहीं है। नघट पट है और न पट घट है, किन्तु हैं दोनों। परन्तु दोनोंका अस्तित्व अपनी-अपनी मर्यादामें ही सीमित है, उसके बाहर नहीं है। अतः प्रत्येक वस्तु अपनी मर्यादामें है और उससे बाहर नहीं है। यदि वस्तुएँ इस मर्यादाका उल्लंघन कर जायें तो फिर घट और पटकी तो बात ही क्या, सभी वस्तुएँ सत्र रूप हो जायगी और इस तरहसे संकर दोप उपस्थित होगा। अनः प्रत्येक वस्तु स्वरूप की अपेक्षासे मन कही जाती है और पररूपकी अपेक्षाने असन कही जाती है । इमी दृष्टान्तको गुरु शिप्यके मंवादके रूपमें यहाँ दिया जाता है, उससे पाठक और भी अधिक म्पष्ट रूपसे उसे समझ सकेंगे। गु०-एक मनुष्य अपने सेवकको आज्ञा देता है कि 'घट टाओ' तो सेवक तुरन्त घट ले आता है और जब वस्त्र लानेकी आज्ञा देना है तो वह वस्त्र उठा लाता है। यह तुम व्यवहारमें प्रतिदिन देखते हो । किन्तु क्या कभी तुमने इस वानपर विचार किया कि मुननेवाला 'घट' शब्द सुनकर घट ही क्यों लाता है और वस्त्र शब्द सुनकर वस्त्र ही क्यों लाता है ? शि०-घटको घट कहते हैं और वस्त्रको वस्त्र कहते हैं।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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