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________________ सिद्धान्त कपड़ा हो जायेगी। कोई भी वस्तु अपने स्वभावमें स्थिर न रह सकेगी। ____ गु०-यदि हम तुम्हारी ही बातको इस तरहसे कहें कि प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव से नहीं है तो उन्हें कोई आपत्ति तो नहीं ? शि०-नहीं, इसमें किसको आपत्ति हो सकती है। गु०-अब तुमसे फिर पहला प्रश्न किया जाता है कि क्या मौजूदा घटको असन कह सकते हैं ? शि०-(चुप) गु०-चुप क्यों हो ? क्या फिर भ्रममें पड़ गये हो ? शि०-पर स्वभावकी अपेक्षासे मौजूदा घटको भी असत कह सकते हैं। गु०-अब रास्तेपर आये हो । जब हम किसी वस्तुको सत् कहते हैं तो हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि उस वस्तुके स्वरूपकी अपेक्षास ही उस सन कहा जाता है। अपनेसे अन्य वस्तुके म्वरूपकी अपेक्षासे संसारको प्रत्येक वस्तु असन है। देवदत्तका पुत्र संसार भरके मनुष्योंका पुत्र नहीं है और न देवदत्त संसार भरके पुत्रोंका पिता है। क्या इससे हम यह नतीजा नहीं निकाल सकते कि देवदत्तका पुत्र-पुत्र है और नहीं भी है। इसी तरह देवदत्तका पिता पिता है और नहीं भी है । अतः संसारमें जो कुछ है वह किसी अपेक्षामे नहीं भी है। सर्वथा सन् या सर्वथा असन कोई वस्तु नहीं है। किन्तु जब जनदर्शन यह कहना है कि प्रत्येक वस्तु मन भी है और अमन भी है तो श्रोता इस असंभव ममझना है क्योंकि जो सत है वह असन कैसे हो सकता है ? परन्तु ऊपर बनलाये गये जिन दृष्टिकोणोंको लक्ष्य करके जैनदर्शन वस्तुको मन और असत् कहता है यदि उन दृष्टिकोणोंको भी समझ लिया जाये तो फिर उसे असंभव कहनका साहस नहीं हो सकता। किन्तु जिसे समझनेमें बादरायण जैसे सूत्रकारों और शंकराचार्य
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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