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________________ जैनधर्म अस्तित्व है तब तक वैष्णव लोग जैन दर्शनकी रक्षा करेंगे। वैष्णव और जैन एक ही हैं उन्हें अलग अलग नहीं समझना चाहिये । वैष्णवों और जैनोंसे जो कर लिया जाता है उससे श्रवणबेलगोलाके लिये रक्षकोंकी नियुक्ति की जाय और यह नियुक्ति वैष्णवोंके द्वारा हो। तथा उससे जो द्रव्य वचे उससे जिनालयोंकी मरम्मत कराई जाये और उनपर चूनापोता जाये। इस प्रकार वे प्रतिवर्प धनदान देनेसे न चूकेंगे और यश तथा सम्मान प्राप्त करेंगे। जो इस आज्ञाका उल्लंघन करेगा वह राजद्रोही और संप्रदायद्रोही होगा।" एक दूसरे शिलालेखसे जैनों और वीर शवोंके विवादका पता चलता है । यह लेख १६३८ ई० का है, यह जैनधर्मकी प्रशंसासे शुरू होता है ओर शिवकी प्रशंसासे इसका अन्त होता है। - मामला यह था कि किसी वीर शैवने विजयपाव वसदिके खम्भेपर शिवलिंगकी स्थापना कर दी और विजयप्पा नामके एक धनी जैन व्यापारीने उसे नष्ट कर दिया। इससे बड़ा क्षोभ फैला और जैनोंने वीर शैव मतके नेताओंके पास इस मामलेके निपटारेके लिये प्रार्थना की। यह निश्चय किया गया कि जैन लोग पहले विभूति और वेलपत्र शिवलिंगको चढ़ाकर अपना आराधनपूजन करें। इसके उपलक्ष्यमें वीर शैवेनेि जैनियोंके प्रति अपना सौहार्द प्रदर्शित करनेके लिये उक्त निर्णयमें इतना जोड़ दिया'जो कोई भी जैधर्मका विरोध करेगा वह शिवद्रोही समझा जायेगा । वह विभूति रुद्राक्ष तथा काशी और रामेश्वरके शिव लिंगोंका द्रोही समझा जायेगा। शिलालेखके अन्तमें जिन शासनकी जय हो' इस आशयका वाक्य लिखा हुआ है। __इस तरह चौदहवीं शतीमें आकर साम्प्रदायिक द्वेष कुछ कम हुआ और जैनधर्मका दक्षिण भारतसे यद्यपि समूल नाश तो नहीं हो सका, फिर भी वह क्षीणप्रभ हो गया।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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