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________________ ५ २. सिद्धान्त जैनधर्म क्या है ? जैनधर्म के सिद्धान्त जाननेसे पहले यह जान लेना आवश्यक कि जैनधर्म है क्या ? जैनधर्म शब्द दो शब्दोंके मेलसे बना हैं - एक शब्द है 'जैन' और दूसरा शब्द है 'धर्म' । जैसे विष्णुको देवता माननेवाले वैष्णव और शिवको देवता माननेवाले शैव कहलाते हैं, और उनके धर्मको वैष्णवधर्म या शैवधर्म कहते हैं वैसे ही 'जिन' को देवता माननेवाले जैन कहलाते हैं और उनके धर्मको जैनधर्म कहते हैं । साधारणतया 'जैनधर्म' का यही अर्थ समझा जाता है । किन्तु इसका एक दूसरा अर्थ भी हैं, जो इस अर्थसे कहीं महत्त्वपूर्ण है । वह अर्थ है - 'जिन' के द्वारा कहा गया धर्म । अर्थात् 'जिन' ने जिस धर्मका कथन किया है, उपदेश किया है वह धर्म है जैनधर्म | शैवधर्म या वैष्णवधमं में यह अर्थ नहीं घटना ; क्योंकि शिव या विष्णुने स्वयं किसी धर्मका उपदेश नहीं किया। वे तो देवता माने गये हैं । और वाद में जब बहुदेवतावादकं स्थान में एकेश्वर भावनाका उदय हुआ तो दोनों ईश्वर के रूप कहलाये । पीछेसे श्रीकृष्णको विष्णुका पूर्णावतार मान लिया गया। उनके भक्तोंका धर्म तो मूलमें वेदविहित क्रियानुष्ठान ही है । किन्तु 'जिन' ईश्वरीय अवतार नहीं होते, वे तो स्वयं अपने पौरुपके बलपर अपने कामक्रोधादि विकारोंको जीतकर 'जिन' बनते हैं । 'जिन' शब्दका अर्थ होता है— जीतनेवाला। जिसने अपने आत्मिक विकारोंपर पूरी तरह से विजय प्राप्त कर ली वही 'जिन' है। जो 'जिन' बनते हैं वे हम प्राणियोंमेंसे ही बनते हैं । प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा बन सकता है। जीवात्मा और
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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