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________________ इतिहास ४७ न करते। जैन संघकी इस यात्रासे दक्षिण भारतमें जैनधर्मको और भी अधिक फलने और फूलनेका अवसर मिला। ___ श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृतिसे सदा उदार रही है, उसमें भाषा और अधिकारका वैसा बन्धन नहीं रहा जैसा वैदिक संस्कृतिमें पाया जाता है। जैन तीर्थङ्करोंने सदा लोकभाषाको अपने उपदेशका माध्यम बनाया । जेनसाधु जैनधर्मके चलतेफिरते प्रचारक होते हैं। वे जनतासे अपनी शरीरयात्राके लिये दिनमें एक बार जो रूखा-सूखा किन्तु शुद्ध भोजन लेते हैं उसका कई गुना मूल्य वे सशिक्षा और सदुपदेशके रूपमें जनताको चुका देते हैं और शेप समयमें साहित्यका सृजन करके उसे भावी सन्तानके लिए छोड़ जाते हैं। ऐसे कर्मट और जनहितनिरत साधुओंका समागम जिस देशमें हो उस देशमें उनके प्रचारका कुछ प्रभाव न हो यह सम्भव नहीं । फलतः उत्तरभारतके जैनसंघकी दक्षिण यात्राने दक्षिण' भारतके जीवनमें १. प्रो० राम स्वामी आयंगर अपनी 'स्टडीज इन माउथ इण्डियन जैनिज्म'-पुस्तकमें लिखते है-'सुशिक्षित जैन साधु छोटे-छोटे ममह वनाकर समस्त दक्षिणभारतमें फैल गये और दक्षिणकी भाषाओंम अपने धार्मिक साहित्यका निर्माण करके उसके द्वारा अपने धार्मिक विचारोंको धीरे-धीरे किन्तु स्थायी रूपमें जनतामें फैलाने लगे। किन्तु यह कल्पना करना कि ये साधु साधारणतया लौकिक कार्योम उदासीन रहते थे, गलत है। एक सीमा तक यह सत्य है कि ये संसारमें सम्बद्ध नहीं होते थे। किन्तु मेगास्थनीजके विवरणसे हम जानते हैं कि ईस्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दीतक राजा लोग अपने दूतोंके द्वारा वनवासी जैन श्रमणोंसे राजकीय मामलोंमें स्वतन्त्रतापूर्वक सलाह-मशविरा करते थे। जैन गुरुओंने राज्योंकी स्थापना की थी, और वे राज्य शताब्दियों तक जैन धर्मके प्रति सहिष्णु बने रहे। किन्तु जैनधर्मग्रन्थोंमें रक्तपात के निषेधपर जो अत्यधिक जोर दिया गया उसके कारण समस्त जैन जाति राजनैतिक अधोगतिको प्राप्त हो गई।" पृ० १०५-१०६।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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