SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ जैनधर्म एक क्रान्ति पैदा कर दी। उसका साहित्य खूब समृद्ध हुआ और वह जैनाचार्योंकी खनि तथा जैन संस्कृतिका संरक्षक और संवर्धक बन गया। जैनधर्मक प्रसारकी दृष्टिसे दक्षिण भारतको दो भागों में बाँटा जा सकता है-तमिल तथा कर्नाटक । तमिल प्रान्तमें चोल और पांड्यनरेशोंने जैनधर्मको अच्छा आश्रय दिया। खारवेलके शिलालेखसे पता चलता है कि सम्राट् खारवेलके राज्याभिषेकके अवसरपर पांड्यनरेशने कई जहाज उपहार भरकर भेजे थे । सम्राट् खारवेल जैन था और पांड्यनरेश भी जैन थे। पांड्यवंशने जैनधर्मको न केवल आश्रय ही दिया किन्तु उसके आचार और विचारोंको भी अपनाया। इससे उनकी राजधानी मदुरा दक्षिण भारतमें जैनोंका प्रमुख स्थान बन गई थी। तमिल ग्रन्थ 'नालिदियर' के सम्बन्धमें कहा जाता है कि उत्तर भारतमें दुष्काल पड़नेपर आठ हजार जैन साधु पांड्यदेशमें आये थे। जब वे वहाँसे वापिस जाने लगे तो पांड्यनरेशने उन्हें वहीं रखना चाहा। तब उन्होंने एक दिन रात्रिके समय पांड्यनरेशकी राजधानीको छोड़ दिया किन्तु चलते समय प्रत्येक साधुने एक-एक ताड़पत्रपर एक-एक पद्य लिखकर रख दिया। इन्हींके समुदायसे नालिदियर प्रन्थ बना। जैनाचार्य पूज्यपादके शिष्य बननन्दिने पांड्योंकी राजधानी मदुरामें एक विशाल जैनसंघकी स्थापना की थी। तमिल साहित्यमें 'कुरल' नामका नीतिग्रन्थ सबसे बढ़कर समझा जाता है। यह तमिलवेद कहलाता है। इसके रचयिता भी एक जैनाचार्य कहे जाते हैं, जिनका एक नाम कुन्दकुन्द भी था । पल्लववंशी शिवस्कन्दवर्मा महाराज इनके शिष्य थे। ईसाकी दसवीं शताब्दी तक राज्य करनेवाले महाप्रतापी पल्लव राजा भी जैनोंपर कृपादृष्टि रखते थे। इनकी राजधानी कांची सभी धर्मोंका स्थान थी। चीनी यात्री हुएनत्सांग सातवीं शताब्दीमें कांची आया था। इसने इस नगरीमें फलते-फूलते हुए जिन धर्मोको देखा
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy