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________________ जैनधर्म भगवान ऋषभदेवकी तरह तपश्चरण किया और केवलज्ञानको प्राप्त करके उन्हींकी तरह धर्मोपदेश किया और अन्तमें निर्वाणको प्राप्त किया। इनमेंसे भगवान वासुपूज्यका निर्वाण चम्पापुरसे हुआ और शेप तीर्थङ्करोंका निर्माण सम्मेदशिखरसे हुआ । अन्तिम तीन तीर्थङ्करोंका वर्णन आगे पढ़िये । भगवान नेमिनाथ । भगवान नेमिनाथ वाईसवें तीर्थङ्कर थे। ये श्रीकृष्णके चचेरे भाई थे । शौरीपुर नरेश अन्धकवृष्णिके दस पुत्र हुए। सबसे बड़े पुत्रका नाम समुद्रविजय और सबसे छोटे पुत्रका नाम वसुदेव था। समुद्रविजयके घर नेमिनाथने जन्म लिया और वसुदेवके घर श्रीकृष्णने । जरासन्ध के भयसे यादवगण शौरीपुर छोड़कर द्वारका नगरी में जाकर रहने लगे। वहाँ जूनागढ़के राजाकी पुत्री राजमतीसे नेमिनाथका विवाह निश्चित हुआ । बड़ी धूम-धामके साथ बारात जूनागढ़के निकट पहुंची। नेमिनाथ बहुतसे राजपुत्रोंके साथ रथमें बैठे हुए आसपासकी शोभा देखते जाते थे। उनकी दृष्टि एक ओर गई तो उन्होंने देखा बहुतसे पशु एक बाड़ेमें बन्द हैं, वे निकलना चाहते हैं किन्तु निकलनेका कोई मार्ग नहीं है। भगवानने तुरन्त सारथिको रथ रोकनेका आदेश दिया और पूछा-ये इतने पशु इस तरह क्यों रोके हुए हैं। नेमिनाथको यह जानकर बड़ा खेद हुआ कि उनकी बारातमें आये हुए अनेक राजाओंके आतिथ्य सत्कारके लिए इन पशुओंका वध किया जानेवाला है और इसी लिये वे बाड़ेमें बन्द हैं। नेमिनाथके दयालु हृदयको बड़ा कष्ट पहुँचा। वे बोले–यदि मेरे विवाहके निमित्तसे इतने पशुओंका जीवन संकट में है तो धिक्कार है ऐसे विवाहको । अब मैं विवाह नहीं करूँगा। वे रथसे तुरन्त नीचे उतर पड़े और मुकुट और कंगनको फेंककर वनकी ओर चल दिये । बारातमें इस समाचारके फैलते ही कोहराम मच गया। जूनागढ़के अंत:
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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