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________________ इतिहास १५ उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसमें पशुओं तकको धर्मोपदेश सुननेके लिये स्थान मिलता था और सिंह जैसे भयानक जन्तु शान्तिके साथ बैठकर धर्मोपदेश सुनते थे। भगवान जो कुछ कहते थे सबकी समझमें आ जाता था। इस तरह जीवनपर्यन्त प्राणिमात्रको उनके हितका उपदेश देकर भगवान ऋषभदेव कैलास पर्वतसे मुक्त हुए। वे जैनधर्मके प्रथम तीर्थङ्कर थे। हिन्दू पुराणोंमें भी उनका वर्णन मिलता है। इस युगमें उनके द्वारा ही जैनधर्मका आरम्भ हुआ। ३. जैनधर्म के अन्य प्रवर्तक भगवान ऋषभदेवके पश्चात् जैनधर्मके प्रवर्तक २३ तीर्थकर और हुए, जिनमें से दूसरे अजितनाथ, चौथे अभिनन्दननाथ, पाँचवें सुमतिनाथ और चौदहवें अनन्तनाथका जन्म अयोध्यानगरीमें हुआ। तीसरे संभवदेवका जन्म श्रावस्ती नगरीमें हुआ । छठे पद्मप्रभका जन्म कौशाम्बीमें हुआ। सातवें सुपार्श्वनाथ और तेईसवें पार्श्वनाथका जन्म वाराणसी नगरी में हुआ। आठवें चन्द्रप्रभका जन्म चंद्रपुरीमें हुआ। नौवें पुष्पदन्तका जन्म काकन्दी नगरीमें हुआ। दसवें शीतलनाथका जन्म भद्दलपुरमें हुआ। ग्यारहवें श्रेयांसनाथका जन्म सिंहपुरी (सारनाथ) में हुआ। बारहवें वासुपूज्यका जन्म चम्पापुरीमें हुआ। तेरहवें विमलनाथका जन्म कंपिला नगरीमें हुआ । पन्द्रहवें धर्मनाथका जन्म रत्नपुरमें हुआ। सोलहवें शान्तिनाथ, सतरहवें कुन्थुनाथ और अठारहवें अरनाथका जन्म हस्तिनागपुरमें हुआ। उन्नीसवें मल्लिनाथ और इक्कीसवें नमिनाथका जन्म मिथिलापुरीमें हुआ । बीसवें मुनिसुव्रतनाथका जन्म राजगृही नगरीमें हुआ। इनमेंसे धर्मनाथ, अरनाथ, और कुन्थुनाथका जन्म कुरुवंशमें हुआ, मुनिसुव्रतनाथका जन्म हरिवंशमें हुआ और शेषका जन्म इक्ष्वाकुवंशमें हुआ। सभीने अन्तमें प्रव्रज्या लेकर
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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