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________________ इतिहास १७ I पुर में जब राजमतीको यह समाचार मिला तो वह पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बहुतसे लोग नेमिनाथको लौटाने के लिये दौड़े, किन्तु व्यर्थ । वे पासमें ही स्थित गिरनार पहाड़पर चढ़ गये और सहस्राम्र वनमें भगवान ऋषभदेवकी तरह सब परिधान छोड़कर दिगम्बर हो आत्मध्यानमें लीन हो गये और केवलज्ञानको प्राप्तकर 'गिरनारसे ही निर्वाण लाभ किया । भगवान पार्श्वनाथ भगवान पार्श्वनाथ २३ वें तीर्थङ्कर थे । इनका जन्म आजसे लगभग तीन हजार वर्ष पहले वाराणसी नगरीमें हुआ था । यह भी राजपुत्र थे । इनकी चित्तवृत्ति प्रारम्भसे ही वैराग्यकी ओर विशेष थी । माता - पिताने कई बार इनसे विवाह का प्रस्ताव किया किन्तु उन्होंने सदा हँसकर टाल दिया । एक वार ये गंगाके किनारे घूम रहे थे । वहाँपर कुछ तापसी आग जलाकर तपस्या करते थे । ये उनके पास पहुँचे और बोले— 'इन लक्कड़ोंको जलाकर क्यों जीवहिंसा करते हो ।' कुमारकी बात सुनकर तापसी बड़े झल्लाये और बोले— 'कहाँ है जीव ?' तब कुमारने तापसीके पाससे कुल्हाड़ी उठाकर ज्यों ही जलती हुई लकड़ीको चीरा तो उसमेंसे नाग और नागिनका जलता हुआ जोड़ा निकला । कुमारने उन्हें मरणोन्मुख जानकर उनके कानमें मूलमंत्र दिया और दुःखी होकर चले गये । इस घटनासे उनके हृदयको बहुत वेदना हुई । जीवनकी अनित्यताने उनके चित्तको और भी उदास कर दिया और वे राजसुखको तिलाञ्जलि देकर प्रत्रजित हो गये। एक बार वे १ महाभारत में भी लिखा है युगे युगे महापुण्यं दृश्यते द्वारिका पुरी । अवतोर्णो हरियंत्र प्रभासशशिभूषणः ॥ रेवताद्रौ जिनो नेमिर्युगादिविमलाचले । ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् ॥
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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