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________________ ३२९ विविध आभू अपने दैनिक धर्म-कर्मका बड़ा पक्का था। युद्धके मैदानमें सन्ध्या होते ही वह तलवार म्यानमें रखकर हाथीके हौदेपर ही आत्मध्यानमें लीन हो गया। यह देखकर लोग कहने लगे कि यह जैनी क्या लड़ेगा। किन्तु नित्यकृत्य करनेके बाद ही सेनापतिकी तलवार चमकने लगी और मुसलमानोंके सेनापतिको हथियार डालकर सन्धिकी प्रार्थना करनी पड़ी। जयपुर के जैन दीवान जयपुर राज्यके दीवान पदको बहुत वर्षोंतक जैनोंने सुशो. भित किया है, और राज्यको अनुशासित, सुखी तथा समृद्ध करनेमें स्तुत्य हाथ बटाया है तथा उसकी रक्षाके लिए बहुत कुछ किया है। यहाँ एक दो उदाहरण दिये जाते हैं। जब औरंगजेबका पुत्र बहादुरशाह भारतका सम्राट बना तो उसने आमेरपर कब्जा कर लिया और सवाई जयसिंहको राज्य छोड़ना पड़ा, तब दीवान रामचन्द्रने सेना संगठित करके आमेरपर चढ़ाई कर दी और आमेरपर पुनः जयसिंहका अधिकार हो गया। ____ इसी तरह दीवान रायचन्दजी छावड़ा भी जयपुर नरेशके प्रिय और विश्वासपात्र थे। सं० १८६२ में जब जयपुर और जोधपुरमें उदयपुरकी राजकुमारीको लेकर झगड़ा हुआ तब जोधपुरमें बख्शी सिंघी इन्द्रराज और दीवान रायचन्दने मिलकर झगड़को खत्म किया। किन्तु बादको लड़ाईकी नौबत आ गई और दीवान रायचन्दने बुद्धि-कौशल और शस्त्र-कौशलसे उसे निबटाया। ये दीवान बड़े धर्मात्मा थे। इन्होने १८६१ में एक बहुत बड़ी विम्ब प्रतिष्ठा कराई थी। ___इस तरह संक्षेपमें कुछ जैनवीरोंकी यह कीनि-गाथा है, जो बतलाती है कि जैन धर्मानुयायी आवश्यकता पड़नेपर मरने और मारनेके लिये भी तत्पर रहते हैं। क्योंकि जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा' जो कर्मवीर होते हैं वही धर्मवीर होते हैं। ऐसा शास्त्र वाक्य है।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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