SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामाजिक रूप ३०३ देशीयगण और काणूरगण इन तीन गणोंके और गच्छोंमें पुस्तकगच्छ, सरस्वतीगच्छ, वक्रगच्छ और तगरिलगच्छके उल्लेख पाये जाते हैं। इन संघ, गण और गच्छोंकी प्रत्रया आदि क्रियायोंमें कोई भेद नहीं है। किन्तु दर्शनसारमें कुछ ऐसे भी संघोंकी उत्पत्तिका उल्लेख किया है जिन्हें उसमें जैनाभास बतलाया गया है। वे संघ हैं-श्वेताम्बर, यापनीय, द्रविण, माथुर और काष्ठा। इनमेंसे पहले दो संघोंका वर्णन आगे किया गया है, क्योंकि उनसे आचारके अतिरिक्त दिगम्बरोंका सिद्धान्तभेद भी है। शेष तीन जैनसंघ दिगम्बर सम्प्रदायके ही अवान्तर संघ हैं तथा उनके साथ कोई महत्त्वका सिद्धान्तभेद भी नहीं है। दर्शनसार' के अनुसार वि० सं० ५२६ में दक्षिण मथुरामें द्राविड़ संघकी उत्पत्ति हुई। इसका संस्थापक आचार्य पूज्यपादका शिष्य वनन्दि था । इसकी मान्यता है कि बीजमें जीव नहीं रहता, कोई वस्तु प्रासुक नहीं है। इसने ठण्डे पानीसे स्नान करके और खेती वाणिज्यसे जीवन निर्वाह करके प्रचुर पापका संचय किया। द्रविड़संघसे सम्बन्धित शिलालेख कोगाल्ववंशी शान्तरवंशी तथा होय्सलवंशी राजाओंके राज्यकालके मिले हैं जो प्रायः १०-११वीं शताब्दी या उसके बादके हैं। जिससे ज्ञात होता है कि उन वंशोंके नरेशोंका संरक्षण इस संघको प्राप्त था। इन लेखोंसे यह भी ज्ञात होता है कि इस संघके आचार्योंने १. "सिरिपुज्जपादसीसो दाविड़संघस्य कारगो दुट्ठो । णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्थो ॥२४॥ वीएसु णत्थि जीवो उन्भसणं णत्थि फासुगं णत्थि । सावज्ज ण हु मण्णइ ण गणइ गिहकप्पियं अटुं ॥२६॥ कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्ज कारिऊण जीवंतो। गहतो सीयलणारे पावं पउरं समज्जेदि ॥२७॥
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy