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________________ ३०४ जैनधर्म पद्मावती देवीकी पूजाके प्रसारमें बड़ा योग दिया था । कई लेखों में शान्तर और होय्सलवंशके राजाओंके द्वारा राज्य सत्ता पाने में पद्मावतीकी सहायता दिखाई गई है । लेखोंसे यह भी ज्ञात होता है कि इस संघ के साधु वसदि या जैन मन्दिरोंमें रहते थे । उनका जीर्णोद्धार और ऋषियोंके आहारदान तथा भूमि जागीर आदिका प्रबन्ध करते थे। शायद इन्हीं कारणोंसे दर्शनसार में इस संघको जैनाभास कहा है । एक शिलालेख में इस संघको द्रविड़संघ कोण्डकुन्दान्वय तथा दूसरे में मूलसंघ द्रविड़ान्वय लिखा है । परन्तु ११वीं शताब्दीके उत्तरार्धके लेखोंमें इसका द्रविड़गणके रूपमें नन्दिसंघ असङ्गलान्वयके साथ उल्लेख है । इसपर से ऐसा अनुमान किया जाता है कि प्रारम्भमें द्रविडसंघने अपना आधार मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वयको बनाया हो, पीछे यापनीय सम्प्रदाय के प्रभावशाली नन्दिसंघके अन्तर्गत हो गया हो और इसीसे दर्शनसार में उसे जैनाभास कहा हो । ११-१२ वीं शताब्दी में इस संघके मुनियोंकी गद्दियां कोङ्गाल्व राज्यके मुल्लूर तथा शान्तर राजाओंकी राजधानी हुम्मचमें थीं । हुम्मचसे प्राप्त लेखोंमें इस संघके अनेक आचार्योंका परिचय मिलता है । मूलसंघके गण, गच्छ एवं अन्वय मूलसंघ ४-५ वीं शताब्दीमें दक्षिण भारतमें विद्यमान था । देवगण, सेनगण, देशियगण, नन्दिगण, सूरस्थगग, क्राणूरगण, बलात्कारगण, आदि उसके अन्तर्गत थे । देशियगण का प्रसिद्ध गच्छ पुस्तकगच्छ था, उसीका दूसरा नाम वक्रगच्छ भी था । क्राणूरगणके दो प्रसिद्ध गच्छ थे - मेषपाषाणगच्छ और तिन्त्रिणीक गच्छ । १४ वीं शताब्दीके बाद क्राणूरगणका प्रभाव वलात्कारगणके प्रभावशाली भट्टारकों के आगे क्षीण हो गया। चूँकि - बलात्कारगणके आदिनायक पद्मनन्दि आचार्यने सरस्वतीको
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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