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________________ जैनधर्म इन नामोंके विषय में कुछ मतभेद भी है, जिसका उल्लेख भी आचार्य इन्द्रनन्दिने किया है । कुछके मतसे जो गुहाओंसे आये थे उन्हें 'नन्द्रि', जो अशोकवनसे आये थे उन्हें 'देव', जो पञ्चस्तृपोंसे आये थे उन्हें 'सेन', जो शाल्मलि वृक्षके मूलसे आये थे उन्हें 'वीर', और जो खण्डकैंसर वृक्षोंके मूलसे आये थे उन्हें 'भद्र' नाम दिया गया। कुछके मतसे गुहावासी 'नन्दि', अशोकवनसे आनेवाले 'देव', पञ्चस्तूपवासी 'सेन', शाल्मलि वृक्षवाले 'वीर' और खण्डकेसरवाले 'भद्र' और 'सिंह' कहलाये । इन मतभेदोंसे मालूम होता है कि आचार्य इन्द्रनन्दिको भी इस संघभेदका स्पष्ट ज्ञान नहीं था, इसीलिए इस बातका भी पता नहीं चलता कि अमुकको अमुक संज्ञा ही क्यों दी गयी । इन सब संज्ञाओं में नन्दि सेन, देव और सिंह नाम ही विशेष परिचित हैं। भट्टारक' इन्द्रनन्दि आदिने अर्हदुबलि आचार्यके द्वारा इन्हीं चार संघोंकी स्थापना किये जानेका उल्लेख किया है । ३०२ इन चार संघोंके भी आगे अनेक भेद-प्रभेद हो गये । साधारणतः संघोंके भेदोंको गण और प्रभेदों या उपभेदोंको गच्छ कहनेकी परम्परा मिलती है । कहीं-कहीं संघोंको गण भी कहा है, जैसे नन्दिगण, सेनगण आदि । कहीं-कहीं संघोंको 'अन्वय' भी कहा है, जैसे 'सेनान्वय' । गणोंमें बलात्कारगण, पञ्चस्तुप्यात्सगुप्तौ गुणधरवृषभः शल्मलीवृक्षमूला निर्यात सिचन्द्र प्रथितगुणगणी केसरात्खण्डपूर्वात् ॥ ९६ ॥ | " १. 'तदैव यतिराजोऽपि सर्वनैमित्तिकाग्रणो । अर्हद्बलिगुरुश्चक्रे संघसंघट्टनं परम् ||६|| सिंहसंघो नन्दिसंघ : सेनसंघो महाप्रभः । देवसंघ इति स्पष्टं स्थानस्थितिविशेषतः ॥ ७॥ गणगच्छादयस्तेभ्यो जाताः स्वपरसौख्यदाः । न तत्र भेदः कोऽप्यस्ति प्रव्रज्यादिषु कर्मसु ॥८॥ " नीतिसार ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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