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________________ २४० जैनधर्म जो पहल नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। ध्यानमें मग्न जिन मुनियोंके प्रत्येक समयमें अपूर्व अपूर्व परिणाम यानी भाव होते हैं उन्हें अपूर्वकरण गुणस्थानवाला कहा जाता है। इस गुणस्थानमें न तो किसी कर्मका उपशम होता है और न य होता है। किन्तु उसके लिए तैयारी होती है, जीवके भाव प्रति समय उन्नत, उन्नत होते चले जाते हैं। ९. अनिवृत्ति बादर साम्पराय-समान समयवर्ती जीवोंके परिणामोंमें कोई भेद न होनेको अनिवृत्ति कहते हैं। अपूर्वकरण की तरह यद्यपि यहाँ भी प्रति समय अपूर्व-अपूर्व परिणाम ही होते हैं किन्तु अपूर्वकरणमें तो एक समयमें अनेक परिणाम होनेसे समान समयवर्ती जीवोंके परिणाम समान भी होते हैं और असमान भी होते हैं। परन्तु इस गुणस्थानमें एक समयमें एक ही परिणाम होनेके कारण समान समयमें रहनेवाले सभी जीवोंके परिणाम समान ही होते हैं। उन परिणामोंको अनिवृत्तिकरण कहते हैं । और बादर सम्परायका अर्थ 'स्थूलकपाय' होता है । इस अनिवृत्तिकरणके होनेपर ध्यानस्थ मुनि या तो कर्मोंको दवा देता है या उन्हें नष्ट कर डालता है। यहाँ तकके सब गुणस्थानोंमें स्थूलकपाय पायी जाती है, यह बतलानेके लिए इस गुणस्थानके नामके साथ 'बादर साम्पराय' पद जोड़ा गया है। कहा भी है 'होति अणियटिट्णो ते पडिसमयं जेसिमक्कपरिणामा । विमलयरझाणहुयवहसिहाहि गिद्दड्ढकम्मवणा ॥५७।।' 'वे जीव अनिवृत्तिकरण परिणामवाले कहलाते हैं, जिनके प्रतिसमय एक ही परिणाम होता है, और जो अत्यन्त निर्मल ध्यानरूपी अग्निको शिखाओंसे कर्मरूपी वनको जला डालते हैं।' १०. सूक्ष्म साम्पराय-उक्त प्रकारके परिणामोंके द्वारा जो ध्यानस्थ मुनि कषायको सूक्ष्म कर डालते हैं उन्हें सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थानबाला कहा जाता है।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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