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________________ १६ चारित्र २४१ ११. उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ — उपशम श्रेणिपर चढ़नेवाले ध्यानस्थ मुनि जब उस सूक्ष्मकषायको भी दबा देते हैं तो उन्हें उपशान्तकषाय कहते हैं । इसमें कषायको बिल्कुल दबा दिया जाता है। अतएव कषायका उदय न होनेसे इसका नाम उपशान्तकषाय वीतराग है । किन्तु इसमें पूर्ण ज्ञान और दर्शनको रोकनेवाले कर्म मौजूद रहते हैं इसलिये इसे छद्मस्थ भी कहते हैं। पहले लिख आये हैं। कि आगे बढ़नेवाले ध्यानी मुनि आठवें गुणस्थानसे दो श्रेणियों में बँट जाते हैं। उनमें से उपशम श्रेणिवाले मोहको धीरे-धीरे सर्वथा दवा देते हैं पर उसे निर्मूल नहीं कर पाते । अतः जैसे किसी बर्तन में भरी हुई भाप अपने वेगसे ढक्कनको नीचे गिरा देती है, वैसे ही इस गुणस्थानमें आनेपर दबा हुआ मोह उपशम श्रणिवाले आत्माओं को अपने वेगसे नीचेकी ओर गिरा देता है। K १२. क्षीणकपाय वीतराग छद्मस्थ - क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाले मुनि मोहको धीरे-धीरे नष्ट करते-करते जब सर्वथा निर्मूल कर डालते हैं तो उन्हें क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ कहते हैं । इस प्रकार सातवें गुणस्थानसे आगे बढ़नेवाले ध्यानी साधु चाहे पहली श्रेणिपर चढ़े, चाहे दूसरी श्रेणिपर चढ़ें, वे सब आठवाँ नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान प्राप्त करते ही हैं। दोनों श्रेणि चढ़नेवालोंमें इतना हो अन्तर होता है कि प्रथम श्र ेणिवालोंसे दूसरी श्रं णिवालोंमें आत्मविशुद्धि और आत्मबल विशिष्ट प्रकारका होता है। जिसके कारण पहली श्रेणिवाले मुनि तो दसवेंसे ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचकर दबे हुए मोहके उद्भूत हो जानेसे नीचे गिर जाते हैं। और दूसरी श्रोणिवाले मोहको सर्वथा नष्ट कर के दसवें से बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाते हैं । यह सब जीवके भावोंका खेल हैं । उसीके कारण ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचनेवाले साधुका अवश्य पतन होता है और बारहवें गुणस्थान में पहुँच जानेवाला कभी नहीं गिरता, बल्कि ऊपरको ही चढ़ता हैं ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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