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________________ चारित्र २३९ कहे गये मार्गका श्रद्धान करता है, तथा जिसे उसपर दृढ़ आस्था है, वह जीव असंयत सम्यग्दृष्टि है।' आगेके सब गुणस्थान सम्यग्दृष्टिके ही होते हैं। ___५. संयतासंयत-जो संयत भी हो और असंयत भी हो उसे संयतासंयत कहते हैं। अर्थात् जो त्रस जीवोंकी हिंसाका त्यागी है और यथाशक्ति अपनी इन्द्रियोंपर भी नियंत्रण रखता है उसे संयतासंयत कहते हैं। पहले जो गृहस्थका चारित्र बतलाया है वह संयतासंयतका ही चारित्र है । व्रती गृहस्थोंको ही संयतासंयत कहते हैं । इस गुणस्थानसे आगेके जितने गुणस्थान हैं वे सब संयमकी ही मुख्यतासे होते हैं। ६. प्रमत्त संयत-जो पूर्ण संयमको पालते हुए भी प्रमादके कारण उसमें कभी-कभी कुछ असावधान हो जाते हैं उन मुनियोंको प्रमत्त संयत कहते हैं। ७. अप्रमत्तसंयत-जोप्रमादके न होनेसे अस्खलित संयमका पालन करते हैं, ध्यानमें मग्न उन मुनियोंको अप्रमत्त संयत कहते हैं। सातवें गुणस्थानसे आगे दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती हैं एक उपशम श्रेणि और दूसरी क्षपकश्रेणि । श्रेणिका मतलब है पंक्ति या कतार । जिस श्रेणिपर यह जीव कोंका उपशम करता हुआ-उन्हें दबाता हुआ चढ़ता है उसे उपशम श्रेणि कहते हैं और जिस श्रेणिपर कोंको नष्ट करता चढ़ता है उसे झपक श्रेणि कहते । प्रत्येक श्रेणीमें चार-चार गुणस्थान होते हैं। आठवाँ, नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान उपशम श्रेणिमें भी शामिल है और क्षपक श्रेणिमें भी शामिल है । ग्यारहवाँ गुणस्थान केवल उपशम श्रेणिका ही है और बारहवाँ गुणस्थान केवल क्षपक श्रेणिका है। ये सभी गुणस्थान क्रमशः होते हैं और ध्यानमें मग्न मुनियोंके ही होते हैं। ८. अपूर्व करण-करण शब्दका अर्थ परिणाम है। और
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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