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________________ चारित्र २२३ जा सकता । वह भीतरीकी प्रेरणासे ही हो सकता है । अतः कानून से अधिक शक्तिशाली और लाभदायक मार्ग आत्मसंयम है जब मनुष्य अपना और समाजका लाभ समझ कर उसका अनुसरण करने लगता है तो वह स्वयं संयमी बनने की कोशिश करने लगता है । इस तरह जब संयमी पुरुष ऊँचे स्तरपर पहुँच जाता है तो वह स्वयं उदाहरण बनकर दूसरोंको भी संयमी बननेकी सतत प्रेरणा देता है और इस तरह समाज के नैतिक जीवनको उन्नत बनाने में निरन्तर योगदान करता रहता है । संयमकी इसी शिक्षाका परिणाम ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहव्रत हैं । यदि मनुष्यसमाजकी वासनाओं और लालसाओंका नियंत्रण न किया जायेगा तो उसका शारीरिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य नष्ट हो जायेगा और उसका विकास रुक जायेगा । इस विवेचनसे हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि जैनधर्म में प्रत्येक गृहस्थ के लिए जिन पाँच अणुव्रतोंका पालन करना आवश्यक बतलाया है, यदि उन्हें सामाजिक और राजनीतिक जीवनका भी आधार बनाकर चला जाये तो विश्वकी अनेक मौलिक समस्याएँ सरलतासे सुलझ सकती हैं। अब रह जाता है मद्य, मांस और मधुका त्याग तथा गृहस्थ के अन्यत्रत नियम | सबसे यह आशा नहीं की जा सकती कि सब उनका पालन करेंगे। फिर भी जो उनका पालन करेगा उसे शारीरिक और आध्यात्मिक दृष्टिसे लाभ ही होगा । मद्य और मांस ऐसी चीजें हैं जिन्हें मनुष्यके आम भोजनमें स्थान देना आवश्यक नहीं है। दोनों ही तामसिक हैं और तामसिक आहार विहारके होते हुए सात्त्विक भावोंका विकास नहीं हो सकता । और सात्विक भावोंका विकास हुए बिना अहिंसक वातावरण नहीं बन सकता । और अहिंसक वातावरण बनाये बिना दुनियाको सुख शान्ति नसीब नहीं हो सकती । अतः उनकी ओरसे मनुष्योंका मन यदि हट सके तो उससे उन मनुष्योंका तथा संसारका लाभ ही होगा । मनुष्य स्वभाव न तो अच्छा
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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