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________________ २२४ जैनधर्म होता है और न बुरा। वह तो कच्ची गीली मिट्टीके समान है । चाहे जिस रूपमें उसका निर्माण किया जा सकता है । जिन घरानोंमें मद्य मांससे परहेज किया जाता है उनमें जन्म लेनेवाले बच्चे उन चीजोंसे परहेज करते हैं और जिन घरानों में उनका चलन है उनमें जन्म लेनेवाले बच्चे उसके अभ्यस्त हो जाते हैं। इससे सिद्ध है कि इस प्रकारकी वस्तुओंसे मनुष्योंको बचाया जा सकता है वह उनका प्राकृतिक आहार नहीं । किन्तु जिन देशोंमें अन्नकी कमी या जलवायुके प्रभावके कारण मद्य और मांससे एकदम परहेज करना शक्य नहीं है उन देशों में भी उनपर अमुक प्रकारके प्रतिबन्ध लगाकर कमसे कम यह भाव तो पैदा किया जा सकता है कि ये चीजें मनुष्यके लिये ग्राह्य नहीं हैं किन्तु परिस्थितिवश उन्हें खाना पड़ता है । अपनी शक्ति, परिस्थिति और व्यवसाय के अनुसार हिंसाका त्याग करके भी मनुष्य अहिंसकोंकी श्रेणीमें सम्मिलित हो सकता है । उदाहरण के लिए कोई कसाई अपनी अजीविकाका साधन होनेसे यदि पशुहत्याका त्याग नहीं कर सकता तो उसके लिए सप्ताह में एक दिन उसका त्याग कर देना या अमुक प्रकार के पशुओंकी अमुक संख्यामें ही हत्या करनेका नियम ले लेना भी अहिंसाणुत्रतकी जघन्य श्रेणीमें गिना जाता हैं। जैन पुराणों में ऐसे अनेक उदाहरण पाये जाते हैं। यथा-एक मुनिने एक मांसाहारी भीलसे कौवे का मांस खाना छुड़वा दिया था । इसी प्रकार एक मछुवेको यह नियम दिला दिया था कि उसके जालमें जो पहली मछली आयेगी उसे वह नहीं मारेगा। एक चाण्डालको, जो फाँसी लगाने का काम करता था, यह नियम दिला दिया था कि वह चतुर्दशीके दिन किसीको फाँसी नहीं देगा। इन छोटी प्रतिज्ञाओंने ही उन्हें कुछसे कुछ बना दिया । अतः थोड़ा सा भी प्रतिबन्ध लगाकर यदि मांस और मद्य सेवनपर अंकुश रखा जाये तो उनका सेवन करनेके अभ्यस्त मनुष्य भी उनकी बुराइयोंसे बच सकते हैं। और उससे समाज
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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