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________________ २२२ जैनधर्म अनुसार नहीं चलाया जा सकता। हमें बनावटी तौरपर पहले अपनी जरूरतोंको बढ़ाने और फिर उनको पूरा करनेकी कोशिश नहीं करनी चाहिये । जीवनका आनन्द इसपर निर्भर नहीं करता कि हमारे पास कितनी ज्यादा चीजें हैं ? जो व्यक्ति, समाज या राष्ट्र जीवनकी बनावटी आवश्यकताओंको बढ़ाकर उसीकी पूर्ति के लिए प्रयत्न करता रहता है और बिना जरूरत के चीजों का संग्रह करता है, वह दुःखों और पापोंका संग्रह करता है । इसीसे जैनधर्मने परिग्रहको पाप बतलाया है और प्रत्येक गृहस्थ के लिए यह नियम रखा है कि वह अपनी इच्छाओंको सीमित करके अपनी आवश्यकताके अनुसार सभी आवश्यक वस्तुओंकी एक सीमा निर्धारित कर ले और उससे अधिकका त्याग कर दे । आज उत्पादन और वितरणके प्रश्नने दुनियाँ में विराट रूप धारण कर लिया हैं, जिसके कारण दुनियाँकी आर्थिक विषमताका संतुलन करना कठिन हो रहा है। जैनधर्मके प्रवर्तक श्रीऋषभदेवने युगके आदिमें मनुष्योंकी इसी संचयवृत्तिको लक्ष्यकर प्रत्येक गृहस्थके लिए परिग्रह परिमाण व्रतका निर्देश किया था । उस व्यवस्थामें भोग विलास जीवनका ध्येय न था । भोगपर जोर देनेसे ही व्यवस्थाका आधार मौज, मजा और अधिकार हो गया है । जिसका आखिरी नतीजा संघर्ष और युद्धोंका ताँता है। इसके विरुद्ध यदि हम अनावश्यक इच्छाओंके नियमनपर जोर दें तो जीवनपर नियंत्रण कायम होता है और हमारी जरूरतें सीमित हो जाती हैं । जरूरतोंको सीमित किये बिना यदि कानूनोंके आधारपर उत्पादन और वितरणका प्रबन्ध किया भी गया तो उसमें सफलता नहीं मिल सकती । यह स्मरण रखना चाहिये कि कानून की भाषा और उसका पालन करानेके आधार इतने लचर होते हैं कि मनुष्य अपनी बुद्धिके उपयोगके द्वारा कानूनों को भङ्ग करके भी बचा रहता है । वास्तवमें नैतिक आचरणका पालन बलपूर्वक नहीं कराया
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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