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________________ जैनधर्म पिछले दो सौ वर्षोंमें विज्ञानने बड़ी उन्नति की है। उसने ऐसे-ऐसे यंत्र प्रदान किये हैं, जिनसे विश्वका संरक्षण और संहार दोनों ही संभव है; क्योंकि किसी वस्तुका अच्छा उपयोग भी किया जा सकता है और बुरा उपयोग भी किया जा सकता है । उपयोग करना तो मनुष्यके हाथकी बात हैं, उसमें बेचारी वस्तुका क्या अपराध ? विद्या जैसी उत्तम वस्तु भी दुर्जन के हाथमें पड़कर ज्ञानके स्थानमें विवादको जन्म देती है । धनको पाकर दुर्जनको मद होता है किन्तु सज्जन उससे परोपकार करता हैं । शक्ति पाकर एक दूसरोंको सताता है तो दूसरा उसे ही पाकर आतताइयोंके हाथोंसे पीड़ितोंकी रक्षा करता है। विज्ञानने दूरीका अन्त कर दिया है और विश्वको विभिन्न जातियों और राष्ट्रोंको इतने निकट ला दिया है कि वे यदि परस्पर में सम्बद्ध होकर रहना चाहें तो एक सूत्रमें बद्ध होकर रह सकते हैं; क्योंकि विज्ञानने संगठनके अनेक नये साधन प्रस्तुत कर दिये हैं। तथा उत्पादनके भी ऐसे-ऐसे साधन दिये हैं जिनसे संसारके सभी स्त्री-पुरुष सुखपूर्वक अपना जीवन बिता सकते हैं । किन्तु उन साधनोंपर आज अमुक वर्गों और राष्ट्रोंका अधिकार है और वे उनका उपयोग दूसरोंपर अपना प्रभुत्व स्थापित करने और स्थापित किये हुए प्रभुत्वको बनाये रखने में करते हैं। जंगल में शिकार की खोज में भटकनेवाला व्याघ्र अपने नुकीले पंजों और पैने दाँतोंका जैसा उपयोग अपने शिकार के साथ करता है, वैज्ञानिक साधनोंसे सम्पन्न राष्ट्र भी दूसरे राष्ट्रोंकी छातीपर आज अपने वैज्ञानिक साधनों का वैसा ही उपयोग करते दिखलाई देते हैं । फलतः युद्धोंकी सृष्टि होती है और राष्ट्रोंका धन और जन उनकी भेंट चढ़ा दिया जाता है । मानों, उनका इससे अच्छा कोई दूसरा उपयोग हो ही नहीं सकता । एक ओर नये साधनोंके द्वारा खेतोंसे खूत्र अन्न उपजाया जाता है, मिलें रात दिन कपड़े तैयार करनेमें लगी रहती हैं, दूसरी ओर असंख्य मनुष्य बिना अन्न और वस्त्रके जीवन २१८
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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