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________________ चारित्र २१७ मूर्खता है। यह धर्मके स्वरूप और उसके उद्देश्यकी अनभिज्ञताको सूचित करता है, अतः इस मँगताईसे बचना ही चाहिये। इस तरह जैनश्रावक अपने विधि नियमोंके साथ जीवन निर्वाह करता हुआ अन्तमें शान्ति और निर्भयताके साथ मृत्युका आलिंगन करके अपने मानव जीवनको सफल बनाता है । ६. श्रावकधर्म और विश्वकी समस्याएँ आज सभी धर्मोंके सामने यह प्रश्न रखा जाता है कि वे वर्तमान विश्वकी समस्याओंको हल करनेमें कहाँतक आगे आते हैं ? यह प्रश्न न भी रखा जावे तो भी धर्मों के सामने यह प्रश्न तो है ही कि केवल व्यक्तिके अभ्युदय और निश्रेयस प्राप्तिके लिये ही धर्मोंकी सृष्टि की गई है या उनसे समाज और राष्ट्रका भी अभ्युदय हो सकता है ? यहाँ हम ऊपर बतलाये गये जैन श्रावकके धर्मके प्रकाशमें उक्त प्रश्न को सुलझानेका प्रयत्न करते हैं। यह सत्य है कि धर्मकी सृष्टि व्यक्तिके अभ्युदयके लिये हुई किन्तु व्यक्ति समाज, राष्ट्र और विश्वसे कोई पृथक वस्तु नहीं है। व्यक्तियोंका समूह ही समाज, राष्ट्र और विश्वके नामसे पुकारा जाता है। आज जिन्हें विश्वकी समस्याएँ कहा जाता है वस्तुतः वे उस विश्वमें बसनेवाले व्यक्तियोंकी ही समस्याएँ हैं। माना, व्यक्ति एक इकाई है, किन्तु अनेक इकाईयाँ मिलकर ही दहाई, सैकड़ा आदि संख्याएँ बनती हैं, अतः व्यक्तिके अभ्युदयके लिये जन्मा हुआ धर्म जब किसी एक खास व्यक्तिके अभ्युदयका कारण न होकर व्यक्तिमात्रके अभ्युदयका कारण है तो चूँकि व्यक्तिमात्रमें विश्वके सभी व्यक्ति आ जाते हैं अतः वह विश्वके भी अभ्युदयका कारण हो सकता है। किन्तु विश्वको उसे अपनाना चाहिये। अस्तु, पहले हमें यह देखना चाहिये कि आजके युगको वे कौनसी समस्याएँ हैं, जिन्हें हमें हल करना है, और उनका मूल कारण क्या है ?
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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