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________________ चारित्र २१६ बिता देते हैं । एक ओर जिन्हें अन्न और वस्त्रकी आवश्यकता है. वेदाने दानेके लिये तरसते हैं और दूसरी ओर जिन्हें उनकी आवश्यकता नहीं है. वे अनावश्यक संचयके भारसे दबे रहते हैं। शान्ति और सुरक्षाके लिये कानूनोंकी सृष्टि की जाती है और उन्हें जबरदस्ती पलवानेके लिये पुलिस, सेना और जेलखानोंकी सृष्टि की जाती है । अन्यायके लिये न्यायका ढोंग रचा जाता है और सत्यको छिपाने के लिये असत्य प्रोपेगण्डा किया जाता 1 ये समस्याएँ सारे संसार के सामने उपस्थित हैं । युद्धके महा विनाशने युद्ध लड़नेवालोंको भी भयभीत कर दिया है । सब चाहते हैं युद्ध न हो, किन्तु युद्धके जो कारण हैं उन्हें छोड़ना नहीं चाहते । सर्वत्र राजनीतिक और आर्थिक संघटनोंमें पारस्परिक अविश्वास और प्रतिहिंसाको भावना छिपी हुई है । दूसरोंको बेवकूफ बनाकर अपना कार्य साधना ही सबका मूलमंत्र बना हुआ है, फिर शान्ति हो तो कैसे हो और युद्ध रुकें तो कैसे रुकें ? आधुनिक समस्याके इस विहंगावलोकनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि विभिन्न राष्ट्रों और जातियोंके बीच में हिंसामूलक व्यवहारका प्राधान्य है । स्वार्थपरता, बेईमानी, धोखेबाजी ये सब हिंसा ही प्रतिरूप हैं। इनके रहते हुए जैसे दो व्यक्तियोंमें प्रोति और मैत्री नहीं हो सकती वैसे हो राष्ट्रों और जातियों में भी मैत्री नहीं हो सकती । 'जिओ और जीने दो' का जो सिद्धान्त व्यक्तियोंके लिये है वही जातियों और राष्ट्रोंके लिये भी है । जब तक विभिन्न राष्ट्र और जातियाँ इस सिद्धान्तको नहीं अपनाते तब तक विश्वकी समस्याएँ नहीं सुलझ सकतीं, बल्कि और उलझती ही जायेंगी, जैसा कि प्रत्यक्षमें दिखलाई पड़ता है । अतः विश्वकी समस्याओंको सुलझानेके लिये राष्ट्रोंको शासनप्रणाली में आमूल परिवर्तन होना चाहिये और सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओं में संशोधन होना चाहिये । तथा वह
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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