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________________ १७४ जनधर्म अर्थात् जानबूझकर और दूसरे अयत्नाचार या आसावधानीसे । जब एक मनुष्य क्रोध, मान, माया या लोभके वश दूसरे मनुष्यपर वार करता है तो वह हिंसा कपायसे कही जाती है और जब मनुष्यको असावधानतासे किसीका घात हो जाता है या किसीको कष्ट पहुँचता है तो वह हिंसा अयत्नाचारसे कही जाती है। किन्तु यदि कोई मनुष्य देख भालकर अपना कार्य कर रहा है और उस समय उसके चित्तमें किसीको कष्ट पहुँचाने का भी भाव नहीं है, फिर भी यदि उसके द्वारा किसीको कष्ट पहुँचता है या किसीका घात हो जाता है तो वह हिंसक नहीं कहा जा सकता। इसी बातको स्पष्ट करते हुए शात्रकारोंने लिखा है "उच्चालिदम्मि पादे इरियासमिदस्स णिग्गमट्ठाणे । आवादेज्ज कुलिंगो मरेज्ज तं जोगमासेज्ज । ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहमो वि देसिदो समये।" -प्रवच० पृ० २६२। अर्थात्-'जो मनुष्य आगे देख भालकर रास्ता चल रहा है उसके पैर उठानेपर अगर कोई जीव पैरके नीचे आ जावे और कुचलकर मर जावे तो उस मनुष्यको उस जीवके मारने का थोड़ा सा भी पाप आगममें नहीं कहा।' किन्तु यदि कोई मनुष्य असावधानतासे कार्य कर रहा है उसे इस बातको बिल्कुल परवाह नहीं है कि उसके इन कार्यसे किसीको हानि पहुँच सकती है या किसीके प्राणोंपर बन आ सकती है, और उसके द्वारा उस समय किसीको कोई हानि पहुँच भी नहीं रही हो, फिर भी वह हिंसाके पापका भागी है'मरदु व जीवदु जीवो अजदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स पत्थि बंधो हिंसामेतेण समिदस्स ॥१७॥-प्रवच० ३ । अर्थात्-'जीव चाहे जिये चाहे मरे, असावधानतासे काम करनेवालेको हिंसाका पाप अवश्य लगता ।। किन्तु जो साव
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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