SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७१ चारित्र धानीसे काम कर रहा है उसे प्राणिवध हो जानेपर भी हिंसाका पाप नहीं लगता।' ___ अहिंसाकी इस व्याख्याके अनुसार अपनेसे किसी जीवका घात हो जाने या किसीके दुखी हो जानेपर भी तबतक हिंसा नहीं कहलाती जबतक अपने भाव उसे मारने या दुःखी करनेके न हों, अथवा हम अपना कार्य करते हुए असावधान न हों। किन्तु यदि हमारे भाव किसीको मारने या कष्ट पहुँचानेके हों, परन्तु प्रयत्न करनेपर भी हम उसका कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकें, तब भी हम हिंसक ही समझे जायेंगे। क्योंकि जो दूसरोंका बुरा करना चाहता है वह सबसे पहले अपना बुरा करता है। जैसा कि कहा है 'स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चाद् स्याद्वान वा वधः ।।'-सर्वार्थ० पृ० २०६ । अर्थान्–'प्रमादी मनुष्य पहले अपने द्वारा अपना ही घात करता है, पीछे दूसरे प्राणियोंका घात हो या न हो।' असलमें जैनधर्ममें हिंसाको दो भागोंमें बाँट दिया गया है-द्रव्यहिंसा और भावहिंसा । जब किसीको मारने या सताने अथवा असावधानताका भाव न होनेपर भी दूसरेका घात हो जाता है तब उसे द्रव्यहिंसा कहते हैं और जब किसीको मारने या सताने अथवा असावधानताका भाव होता है तब उसे भावहिंसा कहते हैं। वास्तवमें भावहिंसा ही हिंसा है। द्रव्यहिंसाको तो केवल इसलिये हिंसा कहा है कि उसका भावहिंसाके साथ सम्बन्ध है। किन्तु द्रव्यहिंसाके होनेपर भावहिंसा अनिवार्य नहीं है, अर्थात् जिस आदमीके द्वारा किसीका घात हो जाता है या किसीको कष्ट पहुँचता है उस आदमीका इरादा ही ऐसा करनेका था ऐसा एकान्तरूपसे नहीं कहा जा सकता। अतः जहाँ कर्ताके भावों में हिंसा है वहीं हिंसा है, उसके द्वारा कोई मारा जाय या न मारा जाये। और जहाँ कर्ताके भावोंमें
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy