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________________ चारित्र १७३ रहना चाहिये चाहे दूसरोंके तनपर फटा चीथड़ा भी न हो। मेरी साहूकारी सैकड़ोंको गरीब बनाती है तो मुझे क्या ? मेरे भोगविलासके निमित्तसे दूसरोंके प्राणोंपर बन आती है तो मुझे क्या ? हमारे साम्राज्यवादकी चक्कीमें देशका देश पिस रहा है तो हमें क्या ? व्यक्ति, समाज और राष्ट्रकी ये भावनाएँ ही दूसरे व्यक्तियों, समाजों और राष्ट्रोंका निर्दलन कर रही हैं। इनके कारण किसीको भी सुखसाता नहीं है। परस्परमें अविश्वासकी तीव्र भावना रात दिन आकुल करती रहती है। सब अवसरकी प्रतीक्षामें रहते हैं कि कब दूसरेका गला दबोचा जाय । ये सब हिंसक मनोवृत्तिका ही दुष्परिणाम है जो विश्वको भोगना पड़ रहा है। इससे बचनेका एक ही उपाय है और वह है 'जिओ और जीने दो' का मन्त्र । उसके बिना विश्वमें शान्ति नहीं हो सकती। __कुछ लोग अहिंसाको कायरताकी जननी समझते हैं और कुछ उसे अच्छी मानकर भी अशक्य समझते हैं। उनका ऐसा ख्याल है कि अहिंसा है तो अच्छी चीज मगर वह पाली नहीं जा सकती । ये दोनों ही ख्याल गलत हैं। न अहिंसा कायरताको पैदा करती है और न वह ऐसी ही है कि उसका पालन करना अशक्य हो। अहिंसापर गहरा विचार न करनेसे ही ऐसी धारणा बना ली गई है । हिंसा न करनेको अहिंसा कहते हैं। किन्तु अपने द्वारा किसी प्राणीके मर जानेसे या दुःखी हो जानेसे हो हिंसा नहीं होती। संसारमें सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे मरते भी रहते हैं फिर भी जैनधर्मके अनुसार इसे तबतक हिंसा नहीं कहा जा सकता जबतक हिंसारूप परिणाम न हो। वास्तव में हिंसारूप परिणाम ही हिंसा है । अर्थात् जबतक हम प्रमादी और अयत्नाचारी न हों तबतक किसीका घात हो जाने मात्रसे हम हिंसक नहीं कहलाये जा सकते। आशय यह है कि हिंसा दो प्रकारसे होती है एक कषायसे
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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