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________________ १७२ जैनधर्म वह दिन दूर नहीं है जब मानवसंसार उसे समझेगा, क्योंकि उसके कष्टोंका दूसरा इलाज ही नहीं है। _ संसार सुख शान्ति चाहता है, इसका मतलब है कि संसारमें निवास करनेवाला प्रत्येक प्राणी सुखशान्तिका इच्छुक है। कोई मरना नहीं चाहता। दुःखीसे दुःखी प्राणी भी जीवित रहनेकी चाह रखता है। सबको अपना जीवन प्रिय ही नहीं, बल्कि अतिप्रिय है। एसी अति प्यारी चीजको जो नष्ट कर डालता है वह हिंसक है, दानव है; पातकी है । और जो उसकी रक्षा करता है, अपने प्राणोंका बलिदान करके भी त्रस्तोंको बचाता है, उन्हें जीवनदान देता है, वह अहिंसक है वही सच्चा मानव है। इस मानवताका मूल्य वही आँक सकता है, जिसके प्राणोंपर कभी संकट आया है। जो केवल मारना जानते हैं, सताना जानते हैं, उनसे यह आशा कैसे की जा सकती है ? ___ कहावत प्रसिद्ध है-'जाके पैर नहिं फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई ?' जिसके जीवनपर कभी दुःखकी घटा नहीं घहराई, कभी किसी आततायीकी तलवार नहीं पड़ी, वह क्या जान सकता है कि दूसरोंको मारनेमें या सतानेमें क्या दुःख है ? काश यदि मानवने अपने जीवनपर बीती दुःखद घटनाओंसे शिक्षा ली होती तो आज मानव मानवके खूनका प्यासा न होता । किन्तु मानव इतना स्वार्थी है या उसकी स्वार्थपरक वृत्तियाँ इतनी प्रबल हैं, कि वह स्वयं जीवित रहना चाहता है किन्तु दूसरोंके जीवनको कतई परवाह नहीं करता। उसकी दशा नशेमें मस्त उस मोटरचालककी सी है जो सरपट मोटर दौड़ाते हुए यह भूल जाता है कि जिस सड़क पर मैं मोटर चला रहा हूँ उसपर कुछ अन्य प्राणी भी चल रहे हैं, जो मेरी मोटरसे दबकर मर सकते हैं। उसे अपने जीवनकी व अपने सुख चैनकी तो चिन्ता है किन्तु दूसरोंकी नहीं। मुझे स्वादिष्टसे स्वादिष्ट पदार्थ खानेको मिलने चाहिये चाहे दूसरोंकों सूखा कौर भी न मिले । मेरे खजानेमें वेकार सोने-चाँदीका ढेर लगा
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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