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________________ सिद्धान्त कों की स्थिति और फलदान शक्ति और भी अधिक बढ़ जाती है। इस उत्कर्षण और अपकर्षणके कारण ही कोई कम जल्द फल देता है और कोई देर में। किसी कर्म का फल तीव्र होता है और किसी का मन्द। ___सत्ता-बंधनेके बाद ही कर्म तुरन्त अपना फल नहीं देता, कुछ समय बाद उसका फल मिलता है। इसका कारण यह है कि बँधनेके बाद कर्म सत्तामें रहता है। जैसे शराब पीते ही तुरन्त अपना असर नहीं देती किन्तु कुछ समय बाद अपना असर दिखलाती है। वैसे ही कर्म भी बँधनेके बाद कुछ समयतक सत्ता में रहता है । इस कालको जैनपरिभाषामें आबाधाकाल कहते हैं। साधारणतया कर्मका अबाधाकाल उसकी स्थितिके अनुसार होता है। जैसे जो शराब जितनी ही अधिक नशीली और टिकाऊ होती है वह उतने ही अधिक दिनोंतक सड़ाकर बनती है, वैसे ही जो कर्म अधिक दिनोंतक ठहरता है उसका अबाधाकाल भी उसी हिसाबसे अधिक होता है। एक कोटीकोटी सागरकी स्थितिमें सौ वर्ष आबाधाकाल होता है । अर्थात यदि किसी कर्मकी स्थिति एक कोटि कोटि सागर बाँधी हो तो वह कर्म सौ वर्षके बाद फल देना शुरू करता है और तबतक ‘फल देता रहता है जबतक उसकी स्थिति पूरी न हो। किन्तु आयुकर्मका आवाधाकाल उसकी स्थितिपर निर्भर नहीं है। इसका खुलासा अन्य ग्रन्थोंमें देखना चाहिये । इस प्रकार बंधनेके बाद कर्मके फल न देकर जीवके साथ मौजूद रहनेमात्रको सत्ता कहते हैं। उदय-कर्मके फल देनेको उदय कहते हैं। यह उदय दो तरहका होता है-फलोदय और प्रदेशोदय । जब कर्म अपना फल देकर नष्ट होता है तो वह फलोदय कहा जाता है। और जब कर्म बिना फल दिये ही नष्ट होता है तो उसे प्रदेशोदय कहते हैं।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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